पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१९

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वक्रोक्ति ३-वक्रोक्ति दो०-होय श्लेष सों काकु सों, कल्पित औरे अर्थ । ताहि कहत वक्रोक्ति हैं, सिगरे सुकवि समर्थ ॥ विवरण-कहे हुए वाक्यों का श्लप से अथवा काकु से और ही अर्थ कल्पित करें अर्थात् जब वक्ता कोई वाक्य एक अर्थ में कहता है, और श्रोता उसका दूसरा ही अर्थ लगाता है वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है। ऐसा अर्थ श्लेष से वा काकु से हो सकता है। ( श्लेष-वक्रोक्ति) श्लेष-वक्रोक्ति दो प्रकार की होती है-(१) भंगपद (२) अभंगपद। ( १ ) भंगपद वह है जिसके पद को तोड़फोड़कर दूसरा अर्थ किया जाय। जैसे- "गौरवशालिनि प्यारी हमारी सदा तुमहीं इक इष्ट अहो।" श्रीमहादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं कि हे गौरवशालिनी प्यारी ! तुम्हीं हमारी सदा इष्टदेवी हो। पार्वतीजी शब्दों को तोड़कर हँसी से कहती हैं- "हो न गऊ नहि हौं अवशा अलिनि हूँ नहीं अस काहे कहो" अर्थात् न में गो है, न 'अवशा' है और न 'अलिनी' हुँ, तुम ऐसा क्यों कहते हो ? अर्थात् गौः+अवशा+अलिनि =गौरवशालिनी। पुनः-मान तजो गहि मुमति बर, पुनि पुनि होत न देह। मानत जोगी जोग को, हम नहि करत सनेह ॥