पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/३४

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35 अलंकारचंद्रिका दो०-सफरी ने चंचल बने, मृग ने पीन नान । कमलपत्र से चार ये, गधेत के नैन ॥ ( एकधर्मा मालोपमा) जहाँ सब उपमानों का एक धर्म कथन किया जाय वा अनुमान कर लिया जाय । जैसे- हिमवंत जिमि गिरिजा महसहि हह श्री सागर दर्द। तिमि जनक गहि सिय समरपी बिस्व कन्न कीरति नई ॥ जिमि भानु बिनु दिन, प्रान विनु तनु, चंद्रबिनु जिमि जामिनी तिमि अवध 'तुलसीदास' प्रभुबिनु, समुझि धौं जिय भामिनी ॥ वैनतेय बनि जिमि चह कागू । जिमि सस चहै नाग अरि भागू। जिमि चह कुसन अकारन काही संपदा चहै सिवद्रोही ॥ लोभी लोलुप कीरति चहई । अकलंकिता कि कामी नहई। हरिपद विमुख परम गति चाहा । तस तुम्हार लानच नरनाहा ॥ कवित्त-सारद सो, सेस सो, सुधा मो, सक्रमियुर मो, सुरसरिता सो, सूर मसि मा बखान है। हंसन सो, हीरन सो, हिम सो, हलायुध मो, हरिगिरि, हास्य हू सो जपत जहान है। भनन 'मुगर' घनसार, सवन ह सो, पारद सो, पय सो पिनाकी सो, प्रमान है॥ अाज युद्ध जीत जस तखत महीप तंगे, दीप दीप दीपं दीपमानिका समान है। सवैया-भृगुनंद कुठार. सी, वासव बज्र सी। त्रिपुरारी त्रिसूल सी, श्रीपति चक्रसी, 'वंक' कहै बड़वानन्न सी । नरसिंहनखाली सी, खेत में काली सी, सेस मुखानन की झनसी। तरवार तिहारिय मान महीपति है विकराल हलाहल सी। सारद, नारद पारद् अंग सी, छीर तरंग सी, गंग की धार सी।