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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/४१

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प्रतीप ३७ ६ . विवरण-उपमेय से उपमान को कुछ बढ़कर जताना । इस अलंकार में सूरदास का यह पद बहुत अच्छा है । नंदनंदन के बिछुरे अँखियाँ उपमा जोग नहीं। कंज खंज मृग मीन न होही कबिजन बृथा कहीं ॥ कंज होति मुँदि जाति पलक मैं जामिनि होत जहीं। खंज होति उडि जाति छिनक मैं प्रीतम जित तितहीं॥ मृग होती रहती निसिबासर चंबदन ढिगहीं। रूपसरोवर ते बिछुरे कहु जीवत मीन कहीं॥ बरवा-गरखु करौ रघुनन्दन जिन मन माह । देखौ आँखिन मूरति सिय कै छाँह दो०-~महाराज रघुराज जू कीजत कहा गुमान । दंड कोप दल के धनी सरसिज तुमहिं समान । बरवा-का यूँघुट मुख मूंदौ अबला नारि । चंद सरंग पै सोहत यहि अनुहारि ॥ (तीसरा प्रतीप) दो०-जहँ बरनत उपमेय तें, कछु हीनो उपमान । तहँ तीसरो प्रतीप है, कबिजन करो प्रमान ॥ विवरण-जहाँ उपमेय की अपेक्षा उपमान में कुछ लघुता वर्णन की जाय। श्री रघुबीर सिया छबि सामुहैं स्याम घटा विजुरी पर फीकी। दो०-करत गर्व तू कल्पतरु बड़ी सो तेरी भूल । या प्रभु की नीकी नजर तक तेरे ही तूल ॥ दो०-कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि । चित खगेस रघुनाथ कर समुझि परै कहु काहि ॥ मान महीपति के मन आगे लगे लघु कांअर सो कनकाचल ।