पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/४२

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अलंकारचंद्रिका (चौथा प्रतीप) दो०-सरवरि में उपमेय की जब न तुलै उपमान । चौथो भेद प्रतीप को तहँ बरनै मतिमान । उ०-बहुरि विचार कीन मनमाहीं। सीयबदन सम हिमकर नाहीं॥ दो-तो मुख ऐसो पंकमुत अरु मयंक यह बात । बरनै सदा असंक कबि बुद्धि रंक विख्यात ॥ तुव मुख के सम द्वै सकत कहा विचारो चंद् । पुनः-कोटि काम उपमा लघु सोऊ । ( पाँचवाँ प्रतीप) दो०-उपमेय के मुकाबिले व्यर्थ होय उपमान । पंचम भेद प्रतीप को ताहि कहत गुनवान ॥ दो o-या भूपन के जानिये, वाचक कितक निकाम । मंद, वृथा, कछु नहि, कहा मिथ्या, निफल, गुलाम ।। दो०-अमिय झरत चहुँ ओर सों, नयन ताप हरि लेत । राधाजू को बदन अस, चंद उदय केहि हेत ॥ दो०-प्रभा करन तमगुनहरन, धरन सहसकर गजु । तव प्रताप ही जगत में, कहा भानु सो काजु ॥ दो०---जहं राधा आनन उदित, निसिबासर सानंद । तहाँ कहा अरबिंद है, कहा बापुरो चंद ॥ वसंततिलका-याको प्रताप यश लोक प्रकाश है ही। हैं ये वृथा करत चित्त जबै जबै ही ॥ धाता प्रभाकर निशाकर के तबै ही। रेखा करे चहुंध मंडल व्याज ते ही ॥