पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रूपक ३९ दो०-जब जब जसवंत तेज जल बिधना लेत जु देख । व्यर्थ समुझि रबि-ससि करत, कुंडलि मिस परिवेख ॥ पुनः- कल्पवृक्ष केहि काम को जब हैं नृप जसवंत । ८--रूपक* दो०-उपमानरु उपमेय ते बाचक धर्म मिटाय । एकै के आरोपिये सो रूपक कबिराय ॥ दो०-जो काहू के रूप इव रूप बनावै और । रूपक ताही सों कहैं सबै सुकबि सिरमौर ॥ कहुँ कहिये यह दूसरो कहुँ राखिये न भेद । अधिक, हीन, सम त्रिबिध पुनि ते तद्र प अभेद ॥ विवरण–पूर्णोपमालंकार में से वाचक और धर्म को मिटा- कर उपमेय पर ही उपमान का आरोप करें अर्थात् उपमेय और उपमान को एक ही मान लें, यही रूपक अलंकार होगा। इस अलंकार के पहले दो भेद-(१) तद्रूप और (२) अभेद हैं। फिर प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार-(१) अधिक, (२) हीन और (३) सम होते हैं । इस तरह इसके प्रकार हो जाते हैं। रूपक 1 तद्रूप अभेद 1 अधिक हीन सम अधिक हीन सम तद्रूप तद्रूप तद्रूप अभेद अभेद अभेद नोट-अँगरेजी में इस अलंकार को मेटैफर ( Metaphor ) और फारसी तथा उर्दू में 'तलाजमा' कहते हैं। 1