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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/४४

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अलंकारचंद्रिका १-तद्रप रूपक जहाँ उपमान को उपमेय रूप करके वर्णन करें वहाँ तद्रूप रूपक है । इसमें बहुधा अपर, दूसरा, अन्य इत्यादि शब्द वाचक होकर पाते हैं। ( अधिक तद्र प रूपक) जहाँ उपमेय में उपमान से कुछ गुण बढ़कर हो तो भी तद्रूप ही कहें। दो०-जश 'युज वा धुज ते अधिक तीन लोक फहरात । धर्म मित्र बड़ मित्र ते मरत जियत सँग जात ॥ यहाँ यश को ध्वजा ही करके वर्णन किया है, और धर्म को मित्र ही करके, परन्तु यशरूपी ध्वजा में यह अधिक गुण कहा कि वह तीन लोकों में फहराता है ( साधारण ध्वजा में यह गुण नहीं) और धर्मरूपी मित्र में यह अधिकता है कि वह मरने के अनंतर भी साथ देता है जो साधारण मित्र नहीं कर सकता। पुनः-मुखससि वा ससि ते अधिक, उदित ज्योति दिनरात । (हीन तद्रूप रूपक) उपमेय में उपमान से कुछ गुण कम होने पर भी दोनों को एक रूप ठहरावें । उदाहरण- दो-अपर धनेस जनेस यह नहिं पुष्पक आसीन । द्वितिय गनेस मुवेस सुचि सोहत मुंड बिहीन ॥ विप्रन के मंदिन तजि करत आँच सब ठौर । भाउसिंह भूपाल को तेज तरनि यह और ॥ बरवा-दुइ भुज के हरि रधुबर सुन्दर भेस। एक जीभ के लछिमन दूसर सेस ॥