उत्प्रेक्षा que १-वस्तूत्प्रेक्षा किसी वस्तु के अनुरूप बलपूर्वक कोई उपमान कल्पित किया जाय, वहाँ वस्तूप्रेक्षा अलंकार कहा जायगा । इसके दो प्रकार हैं-( क ) उक्तविषया-जहाँ उत्प्रेक्षा का विषय पहले कहा जाय, और तब उसके अनुरूप कल्पना की जाय । (ख) अनुक्तविषया-जहाँ विषय न कहा जाय, केवल कल्पना की जाय। (क) उक्त विषया वस्तूत्प्रेक्षा दो०-सोहत ओढ़े पीतपट स्याम सलोने गात । मनो नीलमनि सैल पर आतप परयो प्रभात ।। यहाँ “पीताम्बर अोढ़े कृष्ण का श्याम तनु" उत्प्रेक्षा का विषय है सो पहले कह दिया गया है, तब उत्प्रेक्षा की गई कि वह तनु कैसा है मानो नीलमणि का पर्वत है जिसपर प्रातःकाल के सूर्य की किरणें पड़ रही हो। यहाँ मुख्य तात्पर्य तो कृष्ण के तनु के वर्णन से है, परंतु कवि अपनी कल्पना से पाठक का ध्यान बलपूर्वक खींचकर एक नीलमणि के पर्वत पर प्रातःकाल की सूर्यकिरणों के पड़ने के दृश्य की ओर लिये जाता है। इस दृश्य के दिखलाने से कवि का तात्पर्य यह है कि पाठक-दर्शक कृष्ण के तनु की उत्कृष्ट शोभा का अनुमान कर सकेगा। इसी प्रकार और भी समझ लेना चाहिये । कुछ और उदाहरण देखिये- दो-लता भवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ । निकसे जनु जुग विमल बिधु, जलदपटल बिलगाइ।। संभु सरासन तोखो मृनाल सोभाल बिसाल प्रताप सोहावै । त्यो ‘लछिराम' स्वयंबर में मिथिलेस अनंद श्रमात न छावै ।।
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