पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/६२

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अलंकारचंद्रिका राम गरे जयमाल के देत सु मैथिली यो समता सरसावै। मानो रमा रतनाकर में रतनावलि श्रीहरि को पहिरावै। दो०-सखि सोहत गोपाल के उर गुंजन की माल । बाहर लसत मनो पिये दावानल की ज्वाल ॥ सूचना-गोस्वामी तुलसीदासजी तथा कविशिरोमणि सूरदासजी ने रामजी तथा कृष्णजी को बालछवि के वर्णन में इस अलंकार का बहुत अधिक और बहुत उत्तम प्रयोग किया है । जैसे- १-लोचन नील सरोज से भ्रू पर मसिविंद बिराज । जनु विधुमुख छबि अमी को रक्षक राखे रसराज ॥ २-सिमु सुभाव सोहत जब कर गहि वदन निकट पदपल्लवलाये, मनहु सुभग जुग भुजंग जलजभरि लेत सुधा ससि सॉसचुपाये। ३-बंधुक-सुमन अरुन पदपंकज अंकुस प्रमुख चिन्ह वनि आये । नूपुर जनु मुनिवर कलहंसन रचे नीड़ दै बाँह बसाये । ४-भाल बिसाल ललित लटकन बर वालदसा के चिकुर सुहाये । मनु दोउ गुरु सनि कुज भागे करि ससिहि मिलन तम के गन पाये। ५-गजमनिमाल बीच भ्राजत कहि जात न पदिक निकाई । जनु उडुगन मंडल बारिद पर नवग्रह रची अथाई ॥ ६मंजु-मेचक मृदुल तनु अनुहरत भूषन भरनि । जनु सुभग शृंगार सिमुतरु फलो अद्भुत फरनि ॥ ७-दो०-'पूरन' जमुना नीर पर यो आतप छबि होति । मानहु कृष्ण सरीर पर पीतपटी की जोति ॥ इन सब उदाहरणों में उत्प्रेक्षा के विषय पहले कह दिये गये हैं तब उत्प्रेक्षाएँ की गई हैं, इसलिये ये उदाहरण उक्त- विषया के हैं।