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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/६३

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उत्प्रेक्षा (ख) अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा जहाँ उत्प्रेक्षा का विषय कथन न करके केवल उत्प्रेक्षा की जाय । जैसे-१-अंजन बरसत गगन यह मानो अथये भानु । जहाँ सूर्यास्त के अनन्तर “अंधकार का फैलना” जो उत्प्रेक्षा का विषय है वह पहले नहीं कहा गया, परंतु उत्प्रेक्षा की गई है कि मानो सूर्यास्त के अनंतर यह आकाश काजल बरसाता है। ऐसे ही कथन को अनुक्तविषया जानो। २-उदित सुधाधर करत जनु सुधामयी बसुधाहि । यहाँ चन्द्रोदय के अनन्तर जो “चाँदनी फैलती है" वही इसका विषय है, सो कवि ने कहा नहीं। उत्प्रेक्षा यह की कि चंद्रमा उदित होकर मानो समस्त धरातल को सुधामय कर देता है ( सुधा का रंग सफेद माना गया है)। ३~सरद ससी वरसत मनो घन घनसार अमन्द । यहाँ भी चाँदनी का प्रकाश जो उत्प्रेक्षा का विषय है, वह नहीं कहा गया, उत्प्रेक्षा यह की गई है कि मानो शरदऋतु का चन्द्रमा बहुत-सा सफेद कपूर बरसाता है। चाँदनी की तरह कपूर का रंग भी श्वेत ही होता है। ४-मोर लौं मजु नचैं धरनी पर मण्डित फेन लगाम उमा हैं । कान के बीच लसै कलंगी फिरी त्योर तिरीछी अतूल अदा हैं ॥ काम कबूतर लौं 'लछिराम' छलैं यो अटेरन की परमा हैं। बाजी बली रघुबंसिन के मनौ सूरज के रथ चूमन चाहे ॥ इसमें श्रीरामजी की बारात के घोड़ों का वर्णन है। उनके तन की छवि का वर्णन करके कवि कहता है कि "वे घोड़े मानो सूर्य का रथ चूमना चाहते हैं" अर्थात् उछलने में बहुत ऊँचे तक उछलते हैं, परन्तु उनकी 'उछाल'-जो इस उत्प्रेक्षा का मुख्य