विवरण—जहाँ व्यंजनों की समानता हो, चाहे उनके स्वर मिलें वा न मिलें, उसे अनुप्रास अलंकार कहते हैं। इसके ५ भेद हैं—(क) छेक (ख) वृत्ति (ग) श्रुति (घ) लाट और (ङ) अंत्य।
(क)—छेकानुप्रास
दो॰—वर्ण अनेक कि एक की, आवृति एकै बार।
सो छेकानुप्रास है, आदि अंत निरधार॥
विवरण—जहाँ एक अक्षर की वा अनेक अक्षरों की आवृत्ति केवल एक बार हो, चाहे वह आदि में हो चाहे अंत में। जैसे—
उ॰—राधा के बर बैन सुनि, चीनी चकित सुभाय।
दाख दुखी मिसरी मुरी, सुधा रही सकुचाय॥
यहाँ 'बर' और 'बैन' में 'ब' की, 'चीनी' और 'चकित' में 'च' की, 'दाख' और 'दुखी' में 'द' की, 'मिसरी' और 'मुरी' में 'म' की; और 'सुधा' और 'सकुचाय' में 'स' की आवृत्ति शब्दों के आदि में हुई है।
उ॰—जन रंजन भंजन दनुज, मनुज रूप सुरभूप।
बिश्व बदर इब धृत उदर, जोबत सोवत सूप॥
इस उदाहरण में रंजन और भंजन में, दनुज और मनुज में, बदर और उदर में, जोवत और सोवत में अंत में दो-दो अक्षरों की आवृत्ति एक बार है। रूप और भूप में अंत में एक अक्षर की आवृत्ति है। विश्व और बदर में तथा सोवत और सूप में आदि में एक-एक अक्षर की आवृत्ति है।
बाँधे द्वार का करी चतुर चित्त काकरी,
सो उस्मिर बृथा करी न राम की कथा करी।
पाप को पिनाक रीन जाने नाक नाकरी,
सु हारिल की नाकरी निरंतर ही ना करी।