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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/८८

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अलंकारचंद्रिका २२-व्याजनिंदा पहली दो०- अस्तुति कीन्ह ह जहाँ निंदा ही दरसाय । ताहि व्याजनिंदा कह कवि कोविद हरपाथ ॥ यथा- १-सेमर तू बड़ भाग है कहा सगयो जाय । पंछी करि फल पास तोहि निसदिन सेहि प्राय ॥ २-राम साधु तुम साधु मुजाना । राममातु तुम भलि पहिचाना ॥ ३-धन्य कीसजो निज प्रभु काजा। जहँ तह नाहि परिहरि लाजा ॥ नाचि कृदि करि लोग रिझाई । पति हित करत कर्म निपुनाई ॥ ४-अहो मुनीस महाभटमानी। ५-नाक कान विनु भगिनि निहारी। क्षमा कीन्ह तुम धर्म विचारी॥ लाजवंत तुम सहज सुभाऊ । निजगुन निजमुत्र कहसि न काऊ ।। दूसरी ओरे की निंदा किये पर की निंदा होय । निंदा व्याज तहों कहैं कवि कोविद सब कोय ।। यथा- दई निरई सो भई 'दास' बड़ी ये भूल । कमलमुखी के जिन कियो हिय कठिनई अतून ॥ यहाँ दुई की निंदा से कमलमुखी ( नायिका) की निंदा झलकती है

  • इस अलंकार को अंगरेजी में 'आयरनी' ( irony ) और फारसी

तथा उर्दू में 'हजोमतीह' कहते हैं। ।