पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/९०

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८६ अलंकारचंद्रिका २-भरद्वाज सुनु जाहि जब होत विधाता बाम । धूरि मेरु सम जनक जम ताहि व्याल सम दाम ।। ३-तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। ४-गरल सुधा रिपु करै मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई । गरुअ सुमेर रेनु सम ताही । राम कृपा करि चितवहिं जाही। ५-पवन अचल गिरि रेनु पुनि जलधि नहीं गंभीर। धरा अतिहिं लधु होति है कृपादृष्टि रघुबीर ॥ पुनः- ६-झाँकी रघुबीर की बिलोकि कै अचेतन भे चेतन, अचेतन चेतन भे देख्यौ आज ॥ ७-सो अज प्रेम भगतिबस कौसल्या की गोद । --कुलिस कठोर कूर्म पीठि ते कठिन अति हठि न पिनाक काहू चपरि चढ़ायो है। 'तुलसी' सो राम के सरोजपानि पर्सत ही टूटो मानो बारे ते पुरारि ही पढ़ायो है। ४-वा मुख की मधुराई कहा कहौं मीठी लगै अँखियान लुनाई । १ ०-लाल तिहारे दृगन की कहौ रीति यह कौन । जासो लागे पलक दृग लागै पलक पलौ न ॥ ११-तंत्रीनाद, कवित्तरस, सरस राग, रतिरंग। अनबूड़े बूड़े, तिरे, जे बूड़े सब अंग ॥ १२-कितो मिठास द्यो दई इते सलोने रूप । सूचना-(१) यह अलंकार अद्भुत रस की कविता के लिये बड़े काम का है। (२) इसी से मिलता-जुलता विषमालंकार का 'दूसरा भेद' है। दोनों की पहचान भली भाँति कर लेना चाहिये। दोनों में भेद यह है कि इस विरोधाभास में जो विरोध-कथन किया जाता है वह केवल आभासमात्र