पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/९४

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९० अलंकारचंद्रिका

१-मैं के वा बिनती करी मान ठानि दुख दैन । कहाँ मधुर मृदु मुख कहाँ कठिन काठ से बैन ॥ २-जोग कहाँ मुनि लोगन जोग कहाँ अबला मति है चपलासी। स्याम कहाँ अभिराम सुरूप कुरूप कहाँ वह कूबरि दासी ॥ ३-कह कुंभज कह सिंधु अपारा । ४-राजकुमार के कंज से पानि कहाँ कह संभुसरासन बज्र सो। ५-कहाँ सीप मुक्ता कहाँ कहाँ कमल कहँ पंक । कह कस्तूरी मृग कहाँ, विधि बुधि है सकलंक ॥ ६-को कहि सकै बड़ेन की लखे बड़ी हू भूल । दीन्हे दई गुलाब के इन डारन ये ७-जेहि बिधि तुमहिं रूप अस दीना। तेइ जड़ बर बाउर कस कीन्हा। कस कीन्ह बर बौराह जेइ बिधि तुमहिं सुन्दरता दई । जो फल चहिय सुरतरुहि सो बरबस बबूरहिं लागई ॥ -खारोकियो है पयोनिधि को पय कारोकियोपिक सो अनुमानो। कंटक पेड़ गुलाब किये अरु चातक बारहु मास तृषानो॥ पंक को अंक कियो है मयंक में भाग कियो है चकोर को खानो। 'सागर मित' सवै परखाकर हंसपती हरबाहन जानो। फूल ॥ दूसरा दो०-कारन औरै रूप को कारज औरै रूप । विषम अलंकृति दूसरी बरनत हैं कविभूप ॥

  • विषमालंकार के इस भेद को फारसो तथा उर्दू में 'सनात तजाद'

कह सकते हैं।