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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/९५

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विषम ९१ १-खड्ग असित जसवंत की प्रगट करयो जस सेत। स्याम गौर दोउ मूरति लछिमन राम । इनते भइ सित कीरति अति अभिराम ॥ २-उपजे जदपि पुलस्तिकुल, पावन अमल अनूप । तदपि महीसुर सापबस,भये सकल घरूप ॥ ३-या अनुरागी चित्त को, गति समुझै नहिं कोय। ज्यों ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यौं त्यौं उज्ज्वल होय । ४-श्रीसरजा सिव तो जस सेत सो होत हैं वैरिन के मुँहकारे 'भूषन' तेरे अरुन प्रताप सपेद लखे कुनबा नृप सारे ॥ ५-'भूषन' भनत महाबीर बलकन लाग्यो सारी पातसाही के उड़ाय गये जियरे । तमक ते लाल मुख सिवा को निरखि भये स्याह मुख नौरंग सिपाह मुख पियरे । तीसरा दो०-और भलो उद्यम किये, होत बुरो फल आय । ताहि विषम तीजो कहत, बुद्धिवंत कबिराय ॥ १-सीतल सिख दाहक भइ कैसे। चकइहि सरद चाँदनी जैसे। २-भलो कहत दुख रउरेहु लागा। ३-दो०-लोने मुख दीठि न लगे, यो कहि दीन्हो ईठ। दूनी कै लागन लगी, दिये दिठौना दीठ ॥ ४-कोप बस है कै हिरनाकुस उदित प्रहलादै मारिबे को भयो आपु हो हनो गयो।

  • सूचना-कई एक कवियों ने 'विषम' अलंकार के ६ भेद लिखे

हैं; परन्तु विचार करने से जान पड़ता है कि आगे के तीन भेद इसी तीसरे भेद के अंतर्गत आ जाते हैं।