पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/९६

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अलंकारचंद्रिका ५-जारिवे को चाहत लंगूर जातुधान देखो बीर हनूमान जू जराय दई लंका को। -जीतिवे को आये भृगुनंद रघुनंदन को जीते गये आपु भये रीते बीरताई सो। २६-सम यह विषमालंकार का ठीक विरोधी है। इसके भी तीन भेद हैं। यथा- पहला बरनत जहाँ विसुद्धमति, यथायोग्य को संग । प्रथम समालंकार तेहि, भापत बुद्धि उतंग ॥ १-सो०-जेइ बिधि रच्यो गोपाल, तेइ ठकुराइन राधिका । लखि चख होत निहाल, समसरि जुगुल किसोर की। २-दो०--चिरजीवो जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर । को घटि ये वृषभानुजा वे हलधर के बीर ॥ ३-जेइ विरंचि रचि सीय सँवारी । तेइ स्यामलवर रच्यो बिचारी। ४-देखे हैं अनेक व्याह सुने हैं पुरान बंद बूझ हैं सुजान साधु नरनारी पारखी। ऐसे सम समधी समाज न बिराजमान राम से न बर दुलही न सीय सारखी। ५-जस दूलह तस बनी बराता । कौतुक बिविध होहिं मगु जाता। ६-कुवजा को कूबर मधुप अहै त्रिभंगिहि जोग । 5-तू दयाल दीन हौं तू दानि हौं भिखारी। हों प्रसिद्ध पातकी तू पापपुंजहारी ॥१॥ नाथ तू अनाथ को अनाथ कौन मोसो। मो समान भारत नहिं भारतहर तोसो ॥२॥ .