पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/९७

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ब्रह्म तू हौं जीब हौं, तू ठाकुर हौं चेरो। ॥३॥ तोहि मोहि नाते अनेक मानिये जो भावै। ज्यौं त्यौं 'तुलसी' कृपाल चरन सरन पावै ॥४॥ -दो०-मो सम दीन- न दीनहितु, तुम समान रघुबीर । अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु विषम भव-भीर ॥ दूसरा दो 2-कारन के सम वरनिये कारज को जेहि ठौर । देखि सरिस गुन रूप तहँ वरनत हैं 'सम' और ॥ यथा- १-सिय जु दुसह दुख सहि लियो, सूता भूमि की होय । २-सो०-जगजीवन को चंद, उदय होत ही तम हरै। छीरसिंधु को नंद, क्यों न उजेरो होय ससि ॥ ३-दो०-मधुप ! वालपन ही पियो दूध पूतना केर । ताही ते दासी रुची यामैं कछू न फेर ॥ तीसरा दो०- ताकी सिद्धि अनिष्ट विनु उद्यम जाके अर्थ । ताको “सम' तीजो कहैं जिनकी बुद्धि समर्थ ॥ यथा- १-दुंदुभि अस्थि ताल दिखराये । बिनु प्रयास रघुबीर ढहाये । ( सुग्रीव ने राम को परीक्षा लेनी चाही। राम ने तुरंत परीक्षा दी और उसमें उत्तीर्ण हुए) २-हरि ढूँढन व्रज में गई, पाये गिरधर लाल । ३-छुवतहि टूट पिनाक पुराना । ४-छुवत टूट रघुपतिहि न दोषू ।