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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/९८

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९४ अलंकारचंद्रिका २७-सार दो०-अर्थन को उत्कर्ष जहँ आगे आगे होत । विवरण-जहाँ वर्णित वस्तुओं के उत्तरोत्तर उत्कर्ष वा अपकर्ष का वर्णन किया जाय उसे 'सार' कहते हैं। इसका दूसरा नाम 'उदार' भी है। ( उत्कर्ष) १-सब मम प्रिय सब मम उपजाये । सबते अधिक मनुज मोहि भाये तिनमहं द्विज द्विजमहँ श्रुति धारी। तिनमहं निगमनीति अनुसारी। तिनमहं पुनि बिरक्त पुनि ज्ञानी । ज्ञानिहुते अति प्रिय बिज्ञानी। तिनतें मोहिं अति प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरिन दूसरिआसा। २-दो- ०-मखमल ते कोमल महा, कलि गरभ को पात । ताहू ते कोमल अधिक, राम तुम्हारे गात ॥ ३-उन्नत अति गिरि गिरिन ते, हरिपद हैं बिख्यात । तिन हूँ ते ऊँचो घनो, संत हृदय दरसात ॥ हे करतार विनै सुनो, 'दास' की लोकनि को अवतार कसो जनि । लोकनि को अवतार कसो तो मनुष्यन को तो संवार कसो जनि। मानुष हू को सँवार कसो तो तिन्हें बिच प्रेम पसार कसो जनि। प्रेम पसार कसो तो दयानिधि कहूँ वियोग बिचार कस्यो जनि ॥ (अपकर्ष) १-अधमते अधम अधम अति नारी। तिन महँ मैं मतिमंद गवारी॥ २-दो०-सिला कठोरी काठ ते, ताते लोह कठोर । ताहू तें कीन्हों कठिन, मन तुम नंदकिसोर ॥ ३-तृन ते लघु है तूल, तूलहु ते लघु माँगनो। सू०-इस अलंकार को अँगरेजी में 'क्लाईमेक्स' (Climax) कहेंगे।