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अहङ्कार

घुटनों के बल चल रहा हो। मेरी बात मानो—स्वाधीन हो जायो। स्वाधीन होकर तुम मनुष्य बन जाते हो।

'यह क्यों कर हो सकता है यूकाइटीज कि शरीर के रहते हुए मनुष्य मुक्त हो जाय?'

'प्रिय पुत्र, तुम्हें यह शीघ्र ही ज्ञात हो जायगा। एक क्षण तुम कहोगे यूकाइटीज़ मुक्त हो गया।'

वृद्ध पुरुष एक संगमरमर के स्तम्भ से पीठ लगाये यहा बाई कर रहा था और सूर्योदय की प्रथम ज्योतिरेखायें उसके मुख को आलोकित कर रही थीं। हरमाडोरस और मार्कस भी उसके समीप भाकर निसियास के बराल में खड़े थे, और चारों प्राणी, मदिरासेवियों की हँसी ठट्टे की परवाह न करके ज्ञानवर्चा में स्वप्न हो रहे थे। यूनाइटील का कथन इतना विचारपूर्ण और मधुर था कि मार्कस ने कहा—

तुम सच्चे परमात्मा को जानने के योग्य हो।

यूक़ाइटीज ने कहा—

सच्चा परमात्मा सच्चे मनुष्य के हृदय में रहता है।

तब वह लोग मृत्यु की चर्चा करने लगे।

यूक़ाईटीज ने कहा—मैं चाहता हूँ कि जब वह आये वो मुझे अपने दोषों को सुधारने और कर्तव्यों का पालन करने में लगा हुआ देखे। उसके सम्मुख मैं अपने निर्मल हाथों को आकाश की ओर उठाऊंगा और देवताओं से कहूँगा—पूज्य देवो, मैने तुम्हारी प्रतिमाओं का लेशमात्र मी अपमान नहीं किया जो तुमने, मेरी आत्मा के मन्दिर में प्रतिष्ठित कर दी है। मैंने वहीं अपने विचारों को, पुष्प मालाओं को, दीपकों को, सुगन्ध को तुम्हारी भेंट किया है। मैंने तुम्हारेही उपदेशों के अनुसार जीवन व्यतीत किया है, और अब जीवन से उकता गया हूँ।