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अहङ्कार

तुम नित्य अपने शत्रुओं को कोसते और अपने अनुयायियों से प्रेम करते रहो । थायस, चिरंजीवी रहो! तुम मुझे भूल जाओगी किन्तु मैं तुम्हें कभी न भूलूँगा। तुम यावज्जीवन मेरे हृदय में मूर्तिमान रहोगी।

उनसे विदा होकर निसियास इसकन्द्रिया की क़ब्रस्तान के निकट पेचदार गलियों में विचारपूर्ण गति से चला । इस मार्ग में अधिकतर कुम्हार रहते थे, जो मुर्दों के साथ दान करने के लिए खिलौने, बरतन आदि बनाते थे। उनकी दूकानें मिट्टी की सुन्दर रगों से चमकती हुई देवियाँ, स्त्रियों, उड़नेवाले दूतों, और ऐसी ही अन्य वस्तुओं की मूर्तियों से भरी हुई थीं। उसे विचार हुआ, कदाचित् इन मूर्तियों में कुछ ऐसी भी हो जो महा- निद्रा में मेरा साथ दें और उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो एक छोटी प्रेम की मूर्ति मेरा उपहास कर रही है। मृत्यु की कल्पना ही से उसे दुःख हुआ। इस विवाद को दूर करने के लिये उसने मन में तर्क किया—

इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि काल या समय कोई चीज़ नहीं । वह हमारी बुद्धि की भ्रांतिमात्र है, धोखा है। तो जब इसकी सत्ता ही नहीं तो वह मेरे मृत्यु को कैसे ला सकता है। या इसका वह आशय है कि अनन्तकाल तक मैं जीवित रहूँगा ? क्या मैं भी देवताओं की भाँति अमर हूँ ? नहीं, कदापि नहीं । लेकिन इससे यह अवश्य सिद्ध होता है कि वह इस समय है, सदैव से है, और सदैव रहेगा । यद्यपि मैं अभी इसका अनुभव नहीं कर रहा हूँ, पर यह मुझमें विद्यमान है और मुझे उससे शंका न करनी चाहिये, क्यों कि इस वस्तु के आने से डरना जो पहले ही आ चुकी है हिमाकत है। यह किसी पुस्तक के अंतिम पृष्ठ के समान उपस्थित है जिसे मैंने पढ़ा है, पर अभी समाप्त नहीं कर चुका हूँ।