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अहङ्कार

हम आज के दिन आनन्दोत्सव मनायें,
अपने भोजन में तेल को चुपड़कर ॥

जब वह लोग पापनाशी की कुटी के द्वार पर आये तो सब के सब घुटने टेककर बैठ गये और बोले—

पूज्य पिता! हमें आशार्वाद दीजिये और हमें अपने रोटियो को चुपड़ने के लिए थोड़ा-सा तेल प्रदान कीजिये, कि हम आपके कुशलपूर्वक लौट आने पर आनन्द मनायें।

मूर्ख पॉल अकेला चुपचाप खड़ा रहा। उसने न घाट ही पर आनन्द प्रगट किया था, और न इस समय जमीन पर गिरा। वह पापनाशी को पहचानता ही न था और सबसे पूछता था, 'यह कौन आदमी है ?' लेकिन कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता था, क्योंकि सभी जानते थे कि यद्यपि वह सिद्ध-प्राप्त है, पर ज्ञानशून्य।

पापनाशी जब अपनी कुटी में सावधान होकर बैठा तो विचार करने लगा—

अन्त में मैं अपने आनन्द और शान्ति के उद्दिष्ट स्थान पर पहुॅच गया । मैं अपने सन्तोष के सुरक्षित गढ़ में प्रावष्ट हो गया, लेकिन यह क्या बात है कि यह तिनकों का झोपड़ा जो मुझे इतना प्रिय है मुझे मित्रभाव से नहीं देखता और दीवारें मुझसे हर्षित होकर नहीं कहती—'तेरा आना मुबारक हो !' मेरी अनुप- स्थिति में यहाँ किसी प्रकार का अन्तर होता हुआ नहीं देख पड़ता । झोपड़ा ज्यों-का-त्यों है, यही पुरानी भेज़ और मेरी पुरानी खाट है। वह मँसालों से भरा सिर है जिसने कितनी ही बार मेरे मन में पवित्र विचारों की प्रेरणा की है; वह पुस्तक रखी हुई है जिसके द्वारा मैंने सैकड़ों पार ईश्वर का स्वरूप देखा है। तिसपर भी यह सभी चीखें न जाने क्यों मुझे अपरिचित—