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अहङ्कार

अधिक स्थिरता होती थी। स्मृति-चित्र अस्थिर, आज्ञिक और अस्पष्ट होता है । इसके प्रतिकूल एकान्त में जो छाया उपस्थित होती है, वह स्थिर और सुदीर्घ होती है । वह नाना प्रकार के रूप बदलकर उसके सामने आती—कभी मलिन-वदन, केशों में अपनी अतिम पुष्पमाला गूँथे, वही सुनहरे काम के वस्त्र धारण किये जो उसने इस्कन्द्रिया में 'कोटा' के प्रीतिभोज के अवसर पर पहने थे, कभी महीन वस्त्र पहने, परियों के कुज में बैठी हुई, कभी मोटा कुरता पहने, विरक्त और आध्यात्मिक आनन्द से विकसित ; कभी शोक मे डूबी आँखें मृत्यु की भयकर आशंकाओं से डबडबाई हुई, अपना भावरण-हीन हृदयस्थल खोले, जिस पर आहत-हृदय से रक्तधारा प्रवाहित होकर जमगई थी । इन छाया- मूर्तियों मे उसे जिस बात का सबसे अधिक खेद और विस्मय होता था वह यह थी कि वह पुष्पमालायें, वह सुन्दर वस्त्र, वह महीन चादरें, वह जरी के काम की कुर्तियाँ जो उसने जला डाली थी फिर कैसे लौट आई। उसे अब यह विदित होता था कि इन वस्तुओं में भी कोई अविनाशी आत्मा है और उसने अतर्वेदना से विकल होकर कहा—

कैसी विपत्ति है कि थायस के असंख्य पापों की असख्य आत्मायें यों मुझ पर आक्रमण कर रही हैं !

जब उसने पीछे की ओर देखा तो उसे ज्ञात हुआ कि थायस खड़ी है, और इससे उसकी अशांति और भी बढ़ गई। असह्य आत्मवेदना होने लगी। लेकिन कि इन सब शंकाओं, और दुष्कल्पनाओं में भी उसकी काया और मन दोनों ही पवित्र थे इसलिए उसे ईश्वर पर विश्वास था; अतएव वह इन करण शब्दों में अनुनय विनय करता था—

भगवन्, तेरी मुझ पर यह अकृपा क्यों ? यदि मैं उसकी खोज