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अहङ्कार

रण हो तो आश्चर्य की क्या बात है। मैं ईश्वर की प्रेरणा से यहाँ चढ़ा हूँ। उसी के आदेश से उतरूँगा।

नित्यप्रति धर्म के इच्छुक आकर पापनाशी के शिष्य बनते और उसी स्तम्भ के नीचे अपनी कुटिया बनाते थे। उनमें से कई शिष्यों ने अपने गुरु का अनुकरण करने के लिए मन्दिर के दूसरे स्तम्भों पर चढ़कर तप करना शुरू किया। पर जब उनके अन्य सहचरों ने इसकी निन्दा की, और वह स्वयं यह धूप और कष्ट न सह सके, तो नीचे उतर आये ।

देश के अन्य भागों से पापियों और भत्तों के जत्थे-के-जत्थे आने लगे। उनमें स कितने ही बहुत दूर से आते थे। उनके साथ भोजन की कोई वस्तु न होती थी। एक वृद्धा विधवा को सूझी कि उनके हाथ ताज़ा पानी, खरबुजे आदि फल बेचे जायँ तो लाभ हो । स्तम्भ के समीप ही उसने मिट्टी के कुल्हड़ जमा किये । एक नीली चादर तानकर इसके नीचे फलों की टोकरियाँ सजाई और पीछे खड़ी होकर हाँक लगाने लगी—ठंडा पानी, ताज़ा फल, जिसे खाना या पानी पीना हो चला आवे । इसकी देखादेखी एक नानबाई थोड़ी-सी लाल ईटे लाया और समीप ही अपना तन्दूर बनाया। इसमें सादी और खमीरी रोटियां सेंककर वह ग्राहकों को खिलाता था। यात्रियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। मिस्र देश के बड़े-बड़े शहरों से भी लोग आने लगे । यह देखकर एक लोभी आदमी ने मुसाफिरों और उनके नौकरों, ऊँटों, खच्चरों आदि को ठहराने के लिए एक सराय बनवाई। थोड़े ही दिनों में उस स्तम्भ के सामने एक बाजार लग गया जहाँ मछुवे अपनी मछलियाँ और किसान अपने फल-मेवे ला-खाकर बेचने लगे। एक नाई भी आ पहुँचा जो किसी वृक्ष की छाँह में बैठकर यात्रियों की हजामत बनाता था और दिल्लगी की बातें करके लोगों को