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अहङ्कार

इवरानी, सुरयानी, और जन्दी का विचित्र सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता था।

अब ईस्टर का उत्सव आया वो इस चमत्कारों और सिद्धियों के नगर में इतनी भीड़-भाड़ हुई, देश-देशान्तरों के यात्रियों का ऐसा जमघट हुआ कि बड़े बड़े बुड्ढे कहते थे कि पुराने जादू- गरों के दिन फिर लौट आये। सभी प्रकार के मनुष्य, नाना प्रकार के वस्त्र पहने हुए वहाँ नजर आये थे। मिश्र निवासियों के धारीदार कपड़े, अरबों के ढीले पाजामे, हब्शियों के श्वेत जाँघिए, यूनानियों के ऊँचे चुरो, रोम निवासियों के नीचे लबादे, असभ्य जातियों के लाल सुथने, और वेश्याओं के किमखाब की पिशवाजें, भाँति-भाँति की टोपियों, मुड़ासों, कमरबन्दों और जूतों—इन सभी कलेवरों की झाँकियाँ मिल जाती थीं। कहीं कोई महिला मुॅह पर नकाब डाले, गधे पर सवार चली जाती थी, जिसके आगे-आगे हब्शी खोजे मुसाफिरों को हटाने के लिए छड़ियों घुमाते, हटो बचो, रास्ता दो, का शोर मचाते रहते थे। कहीं बाजीगरों के खेल होते थे। बाजीगर जमीन पर एकजाखिम विधाए, मौन दर्शकों के सामने अद्भुत छलांग मारता और भाँति-भाँति के करतब दिखाता था। कभी रस्सी पर चढ़कर ताली बजाता, कभी बांस गाड़कर उस पर चढ़ जाना और शिखर पर सिर नीचे पैर ऊपर करके खड़ा हो जाता। कहीं मदारियों के खेल थे, कहीं बन्दरों के नाच, कहीं मालुओं की भद्दी नकलें। सँपेरे पिटारियों में से साँप निकालकर दिखाते, हथेली पर बिच्छू दिखाते और साँप का विष उतारनेवाली जड़ी बेचने थे। किवना शोर था, कितनी धूल, कितनी चमक-दमक, कहीं ऊँटवान ऊँटों को पीट रहा है और जोर-जोर से गालियाँ दे रहा है, कहीं फेरीवाले, गले में एक झोली लटकाये चिल्ला-चिल्लाकर