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अहङ्कार

कोढ़ की ताबीज़े और भूत-प्रेत आदि व्याधियों के मंत्र बेचते फिरते हैं, कहीं साधुगण स्वर मिलाकर बाइबिल के भजन गा रहे हैं, कहीं भेड़ें मिमिया रहीं हैं, कहीं गधे रेंक रहे हैं; मल्लाह यात्रियों को पुकारते हैं ‘देर मत करो!; कहीं भिन्न-भिन्न प्रान्तों की स्त्रियाँ अपने खोए हुए बालकों को पुकार रही हैं; कोई रोता है; कहीं खुशी में लोग आतशबाज़ी छोड़ते हैं, इन समस्त ध्वनियों के मिलने से ऐसा शोर होता था कि कान के परदे फटे जाते थे। और इन सब से प्रबल ध्वनि उन हव्शी लड़कों की थी जो गले फाड़ कर खजूर बेंचते फिरते थे। और इस समस्त जन-समूह को खुले हुए मैदान में भी साँस लेने को हवा न मयस्सर होती थी। स्त्रियों के कपड़ों की महक, हव्शियों के वस्त्रों की दुर्गन्ध, खाना पकाने के धुएँ, और कपूर, लोबान, आदि के सुगन्ध से, जो भक्तजन महात्मा पापनाशी के सम्मुख जलाते थे, समस्त वायुमंडल दूषित हो गया था, लोगों के दम घुटने जगते थे।

अब रात आई तो लोगों ने अलाव जलाये, मशालें और लालटेनें जलाई गई, किन्तु लाल प्रकाश की छाया और काली सूरतों के सिवा और कुछ न दिखाई देता था। मेले के एक तरफ़ एक वृद्ध पुरुष तेल की धुआँवाली कुप्पी जलाये, पुराने ज़माने की एक कहानी कह रहा था। श्रोता लोग घेरा बनाये हुए बैठे थे। बुड्ढे का चेहरा धुँधले प्रकाश में चमक रहा था। वह भाव बना-बनाकर कहानी कहता था, और उसकी परछाई उसके प्रत्येक भाव को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाती थी। श्रोतागण परछाई के विकृत अभिनय देख-देखकर खुश होते थे। यह कहानी ‘बिटीऊ’ की प्रेम कथा थी। बिटिऊ ने अपने हृदय पर जादू कर दिया था और उसे छाती से निकालकर एक बबूल के वृक्ष में रखकर स्वयं वृक्ष का रूप धारण कर लिया था। कहानी