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अहङ्कार

ही आँखें नीची कर ली और उस आवाज को उत्तर दिया—

तू मुझे इन तसवीरों का अवलोकन करने का आदेश क्यों देता है ? इसमें तेरी क्या इच्छा है ? यह सत्य है कि इन चित्रों मे उस प्रतिमावादी पुरुष के सांसारिक जीवन का अंकण किया गया है जो यहाँ, मेरे पैरों के नीचे, एक कुएँ की तह मे, काले पत्थर के संदूक मे चन्द, गड़ा हुआ है। उनसे एक मरे हुए प्राणी की याद आती है, और यद्यपि उनके रूप बहुत चमकीले हैं, पर यथार्थ में वह केवल छाया नहीं, छाया की छाया हैं, क्योंकि मानव जीवन स्वयं छाया मात्र है । मृत देह का इतना महत्व ! इतना गर्व।

उस आवाज़ ने उत्तर दिया—

अब वह मर गया है लेकिन एक दिन जीवित था। लेकिन तू एक दिन मर जायगा और तेरा कोई निशान न रहेगा। तु ऐसा मिट जायगा मानो कभी तेरा जन्म ही नहीं हुआ था।

उसी दिन से पापनाशी का चित्त आठों पहर चंचल रहने लया। एक पल के लिए उसे शान्ति न मिलती। इस आवाज की अविश्रान्त ध्वनि उसके कानों में आया करती। सितार बजाने- वाली युवती अपनी लम्बी पलकों के नीचे से उसकी ओर टकटकी लगाये रहती। आखिर एक दिन वह भी बोली—

पापनाशी, इधर देख ! मैं कितनी मायाविनी और रूपवती भी हूँ ! मुझे प्यार क्यों नहीं करता ? मेरे प्रेमालिंगन मे उस प्रेमदाह को शान्त कर दे जो तुझे विकल कर रहा है। मुझसे तू व्यर्थ आशंकित है। तू मुझसे बच नहीं सकता, मेरे प्रेमपाशों से भाग नहीं सकता! मैं नारिसौन्दर्य हूँ। हतबुद्धि ! मूर्ख ! तू मुझसे


• मित्र के प्राचीन निवासी मुरदों को सहलानों के अन्दर, कुँओं के नीचे गड़ते थे।