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अहङ्कार


जीवन व्यतीत किया था। वही भोगलिप्सा अब उसके हृदय में काँटेके समान चुभा करती थी। दैवयोग से उन्हीं दिनों उसे मकर ऋषि के सदुपदेशों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसकी कायापलट हो गई। सत्य उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गया, भाले के समान उसके हृदय में चुभ गया। बप्तिसमा लेने के बाद वह साल भर तक और भद्र पुरुषों में रहा, पुराने संस्कारों से मुक्त न हो सका। लेकिन एक दिन वह गिरजाघर में गया और वहाँ उपदेशक को यह पद गाते हुए सुना-यदि तू ईश्वर भक्ति का इच्छुक है तो जा, जो कुछ तेरे पास हो उसे बेच डाल और गरीबों को दे दे।' वह तुरन्त घर गया, अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर गरीबों को दान करदी और धर्माश्रम में प्रविष्ट हो गया। और दस साल तक संसार से विरक्त होकर वह अपने पापों का प्रायश्चित करता रहा।

एक दिन वह अपने नियमों के अनुसार उन दिनों का स्मरण कर रहा था जब वह ईश्वर-विमुख था ओर अपने दुष्कर्मों पर एक-एक करके विचार कर रहा था। सहसा उसे याद आया कि मैंने इस्कन्द्रिया की एक नाट्यशाला में थायस नाम की एक प्रति रूपवती नटी देखी थी। वह रमणा रंगशालाओं में नृत्य करते समय अंग प्रत्यंगों की ऐसी मनोहर छवि दिखायी थी कि दर्शकों के हृदय में वासनाओं की तरंगे उठने लगती थीं। वह ऐसा थिरकती थी, ऐसे भाव बताती था, लालसाओं का ऐसा नग्न चित्र खींचती थी कि सजीले युवक और धनी वृद्ध कामातुर होकर उसके गृहद्वार पर फूलों की मालायें भेंट करने के लिये आते। थायस उनका सहर्ष स्वागत करती और उन्हें अपनी अकस्थली में आश्रय देती। इस प्रकार यह केवल अपनी ही आत्मा का सर्वनाश न करती थी, वरन् दूसरों की आत्माओं का भी खून करती थी।

पापनाशी स्वयं उसके मायापाश में फँसते-फँसते रह गया था।