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अहङ्कार


आध्यात्मिक आशय समझ लिया। तीसरी के रूप में थायस श्री जो पापजाल में फँसी हुई थी, और जैसे तीतर ने रस्सी का जाल काट कर उसे मुरू कर दिया था, वह भी अपने योग बल और सदुपदेश से उन अदृश्य बंधनों को काट सकता था जिनमें थायस फँसी हुई थी। उसे निश्चय हो गया कि ईश्वर ने इस रीति से मुझे परामर्श दिया है। उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया। उसका पूर्व संकल्प हो गया लेकिन फिर जो देखा, नर की दाँग उसी जाल में फंसी हुई थी जिसे काटकर उसने मादा को निवृत्त किया था तो वह फिर भ्रम में पड़ गया।

वह सारी रात करवटें बदलता रहा। उषाकाल के समय उसने एक स्वप्न देखा, थायस की मूर्ति फिर उसके सम्मुख उपस्थित हुई। उसके मुखचन्द्र पर कलुषित विनास की आभा न थी, न वह अपने स्वभाव के अनुसार रत्नजटित वस्त्र पहने हुए थी। उसका शरीर एक लम्बी चौड़ी चादर से ढका हुआ था, जिससे उसका मुँह भी छिप गया था। केवल दो आँखे दिखाई दे रही थीं जिनमे से गाढ़े आँसू बह रहे थे।

यह स्वप्नदृश्य देखकर पापनाशी शोक से विह्वल हो रोने लगा और यह विश्वास करके कि यह हैवी आदेश है, उसका विकल्प शान्त हो गया । वह तुरन्त उठ बैठा, जरीष हाथ मे ली सो ईसाई धर्म का एक चिन्ह था। कुटी से बाहर निकाला, सावधानी से द्वार बन्द किया जिसमें धनजन्तु और पक्षी अन्दर जाकर ईश्वर-ग्रन्थ को गन्दा न करदें जो उसके सिरहाने रखा हुआ था। तब उसने अपने प्रधान शिष्य 'फलदा' को बुलाया और उसे शेप २३ शिष्यों के निरीक्षण में छोड़कर, केवल एक ढीला ढाला चोगा पहने हुये नील नदी की ओर प्रस्थान किया। उसका विचार था कि लाइबिया होता हुमा मकदूनिया नरेश