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अहङ्कार

लेता था, और कभी अनुरक्त होकर आकाश की ओर ताकने लगता था कुछ देर इधर उधर निष्प्रयोजनघूमने के बाद वह बंदरगाह पर जा पहुँचा। सामने विस्तृत बंदरगाह था, जिसमें असंख्य जलयान, और नौकायें लंगर डाले पड़ी हुई थी, और उनके आगे नीला समुद्र, श्वेत चादर ओढ़े हँस रहा था। एक नौका ने, जिसकी पतवार पर' एक सिरा का चित्र बना हुआ था, अभी लंगर खोला था। डाँड़े पानी में चलने लगे, मामियों ने गाना प्रारम्भ किया और देखते देखों वह श्वेत-वस्त्र-धारिणी जल-कन्या योगी की दृष्टि में केवल एकस्वप्न-चित्र की भाँति रह गई। बन्दगाह से निकल कर, वह अपने पीछे जगमगाता हुआ जलमार्ग छोडती खुले समुद्र मे पहुँच गई।

पापनाशी ने सोचा मैं भी किसी समय संसार-सागर पर गाते हुए यात्रा करने को उत्सुक था। लेकिन मुझे शीघ्र ही अपनी भूल मालूम हो गई। मुझ पर अप्सरा का जादू न चला।

इन्ही विचारों में मग्न वह रस्सियो की गेंडुली पर बैठ गया। निद्रा से उसकी आँखें बन्द हो गई। नींद में उसे एक स्वप्न दिखाई दिया। इसे मालूम हुआ कि कहीं से तुरहियों की आवाज़ कान में आ रही है, आकाश रक्तवर्ण हो गया है। उसे ज्ञात हुआ कि धर्मा-धर्म के विचार का दिन आ पहुँचा। वह बड़ी तन्मयता से ईश- वदना करने लगा। इसी बीच में उसने एक अत्यन्त भयंकर जन्तु को अपनी ओर आते देखा, जिसके माथे पर प्रकाश का एक संजीब लगा हुआ था। पापनाशी ने उसे पहचान लिया—सिलसिली की पिशाच मूर्ति थी। उस जन्तु ने उसे दाँतों के नीचे दबा लिया और उसे लेकर चला, जैसे बिल्ली अपने बच्चे को लेकर चलती है। इस भाँति यह सन्तु पापनाशी को कितने ही द्वीपों से होता, नदियों को पार करता, महाड़ों को फाँदता अंत में एक निर्जन स्थान में पहुंचा जहाँ दहकते हुए पहा और सालसने राख के ढेरों के