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अहङ्कार

तुम भी हमारे साथ चलो। इस अप्सरा के दर्शन मात्र ही से हम कृतार्थ हो जायँगे।

पापनाशी ने सोचा कि थायस को रंगशाला में देखना मेरे उद्देश्य के अनुकूल होगा। वह उस मनुष्य के साथ हो लिया। उनके सामने थोडी दूर पर रंगशाला स्थित थी। उसके मुख्य द्वार पर चमकते हुए परदे पड़े थे और उसकी विस्तृत वृत्ताकार दीवारें अनेक प्रतिमाओं से सजी हुई थीं। अन्य मनुष्यो के साथ यह दोनों पुरुष भी एक तंग गली से दाखिल हुए। गली के दूसरे सिरे परं अर्ध चन्द्र के आकार का रंग-मच बना हुआ था जो इस समय प्रकाश से जगमगा रहा था। वे दर्शकों के साथ एक अगह जा बैठे। वहाँ से नीचे की ओर किसी तालाब के घाट की भांति सीड़ियों की कतार रंगशाला तक चली गई थी। रंगशाला में अभी कोई न था, पर वह खूब सजी हुई थी। बीच में कोई परदा न था। रंगशाला के मध्य मे कब्र की भाँति एक चबूतरा-सा बना हुआ था। चबूतरे के चारों तरफ रावटियाँ थीं। रावटियों के सामने भाले रखे हुए थे और लम्बी-लम्बी खूँटियों पर सुनहरी ढालें लटक रही थी। स्टेज पर सन्नाटा छाया हुआ था। जब दर्शकों की अधवृत्त उसा-ठस भर गया तो मधु-मक्खियों की भिनभिना- हेट-सी दबी हुई आवाज़ आने लगी। दर्शकों की आंखें अनुराग से भरी हुई, बृहद्, निस्तब्ध रंगमंच की ओर लगी हुई थीं। स्त्रियाँ हसती थीं और नीबू खाती थीं और नित्यप्रति नाटक देखने वाले पुरुष अपनो जगहों से दूसरों को हँस हँस पुकारते थे।

पापनाशी मन में ईश्वर की प्रार्थना कर रहा था और मुँह से एक भी मिथ्या शब्द नहीं निकालना था लेकिन उसका साथी नाट्यकला की अवनति की चर्चा करने लगा—'भाई, हमारे इस कला का घोर पतन हो गया है। प्राचीन समय में अभिनेता,