पृष्ठ:अहिंसा Ahimsa, by M. K. Gandhi.pdf/११३

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गांधीजी इसके लिए कोई अपमानपूर्ण शर्ते न लगाकर यह विखलायेगे कि हालांकि वह ला, निर्दयताके साथ सकते हैं, मगर कमसे कम शान्तिके लिए वह क्याहीनतासे काम नहीं ले सकते। अब हम फिर अपनी दलीलपर आयें। विजय प्राप्तकर लेनेपर हिटलर क्या करेंगे। क्या इतनी सारी सत्ताको वह पचा सकते है ? व्यक्तिगत रूपमें तो वह भी उसी तरह लाली हाथ इस दुनियासे जॉयमे जैसे सिकन्दर गये थे, जो उनके बहुत प्राचीन पूर्ववर्ती नहीं है। जर्मनों के लिए वह एक शक्तिशाली सानाज्यको मालिकोका भानंर नहीं, बल्कि टूटते हुए साम्राज्यको सम्हालनेका भारी बोझ छोड़ जायंगे । क्योंकि सब जीते हुए राष्ट्रोंको वे सदा सर्वदा पराधीन महीं बनाये रख सकते, मौर इस पातमें भी मुझे संदेह है कि भावी पीढ़ीके जर्मन उन कार्गोमे शुद्ध गर्वानुभव करेंगे जिनके लिए वे हिटलरशाहीको जिम्मेदार - रायेगे। हिटलरकी इज्जस बे प्रतिभाशाली, वीर, अनुपम संगठम-करा आदिक रूपरे जरूर करेंगे। लेकिन मुझे आशा करनी चाहिए कि भविष्यके जर्मन अपने महापुरुषोंके बारेमें भी विवेकसे काम लेनेको कला सील जायंगे। कुछ भी हो, मेरे ख्यालमें यह लो मानना ही होगा कि हिटलरने जो मानव-रक्त बहाया है उससे संसारको नैतिकतामे अणुभाष भी वृद्धि नहीं है। इसके प्रतिकूल, आजके यूरोपको हालसको जरा कल्पना तो कीजिये। बैंक, यो, नाणे- बासी, फ्रांसीसी और अंगरेज सबने अगर हिटलरसे यह कहा होता तो फिसना अच्छा होता कि----- विनाशके लिए आपको अपनी वैज्ञानिक तैयारी करमेकी जरूरत नहीं है। आपकी हिसाका हम हिसासे मुकाबिला करेंगे। इसलिए टैकों, जंगी जहाजों और हवाई जहाजों के बगैर ही आप हमारी अहिंसात्मक सेनाको नष्ट कर सर्फगे।" इसपर यह कहा जा सकता है कि इसमें फर्क सिर्फ यही रहेगा कि हिटलर खूनी लड़ाईके बाद जो कुछ पाया है यह उसे लड़ाई के बगैर ही मिल जाता। बिल्कुल ठीक । लेकिन यूरोपका इतिहास सम बिल्कुल जुये रूपमें लिखा जाता। अब जिस तरह अकथनीय बर्बरताओं के बाव कब्जा किया गया है तब शायद (लेकिन सिर्फ शायद ही) अहिंसात्मक प्रतिरोध ऐसा किया जाता। लेकिन अहिंसात्मक प्रतिरोध सिर्फ यही मारे जाते जिन्होंने जरूरत पड़नेपर अपने मारे जानेकी तैयारी कर ली होती और वे किसीको मारे या किसीके प्रति कोई दुर्भाव रखे बगैर मरते। मैं यह कहनेका साहस करता हूँ कि उस हालतमै पूरी ,पने अपनी नैतिकताको काफी बढ़ा लिया होता और अन्तमें, मेरा ख्याल है, नैतिकताका ही शुमार होता है। और सब व्यर्थ है। यह सम मैने यूरोपके राष्ट्रोंकि लिए लिखा है। लेकिन हमारे अपर भी यह लागू होता है। अगर मेरी बलील समासमें आ जाम, तो क्या हमारे लिए यह समय ऐसा नहीं है कि हम बलवानोंको हिसामें अपने निश्चित विश्वासको घोषणा करके यह कहें कि हम हथियारोंकी ताकतसे नहीं बधिक आहसाकी वापससे अपनी स्वतंत्रताको रक्षा करना चाहते हैं ? हरिजन सेवक २२ जून, १९४० ३३४