पृष्ठ:अहिंसा Ahimsa, by M. K. Gandhi.pdf/३१

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गांधीजी इसी तरह, जयपुरमे जो कुछ हो रहा है, उसकी जिम्मेदारी ब्रिटिश प्रधान मन्त्रीपर है। सेठ जमनालाल बजाजको 'फुटबाल' बनाकर बार-बार जयपुरसे करा देना, जब कि उन्हें अपनी जन्मभूमिमे प्रवेश करनेका पूरा हक है, निश्चम ही निहायत अनुचित कारंवाई है। अगर ऐसे कामोंका चित्रण करते, तो मुझे अपनी भाषामे हिसारो काग लेगका वोषी नहीं ठहराया जाना चाहिय। हिंसाका दोषी तो मैं तब हूँगा, अगर मैं काठियावालय रेजिडेंट या जयपुर को प्रधान मन्त्रीको लिलाफ कोई द्वेष-भावना फैलागेका काम कर । क्योंकि मुझे यह मालूम होना चाहिये कि वे, संभव है, कि बहुत ही आवरणीय व्यपित हो, पर उनका आवरणीय होला राजकोट या अधपुरको प्रजाके लिए किस कामका ? सत्य और अहिंसाक। पुजारी होने के नाते, मेरा काम तो यह है कि मै बगर किसी भयके जो नग्न सत्य हो उसे जाहिर कर ? साथ ही अन्याय करनेवालोंके प्रति असन्गामना भी प्रदर्शित न करें। मेरी अहिंसाको सत्यपर मुलम्मा चढ़ाने की जरूरत नहीं। इसलिए मुझपर यह इलजाम नहीं लगाया जाना चाहिये कि मैं किसी कोभके साथ बुश्मनी रखता हूँ। नग्न रायको छिपाकर या उसपर मुलामा चढ़ाकर में लोगोंको हिंसाफे पथरी हटाने में सफल नहीं हो सकता। यह कहार या खुद अपने आधरणके द्वारा दिखाकार किशोर-से-धोर अन्याय करनेवालीका भीमला चाहमानोबल वितही है, बल्कि लाभकारी भी है, प्रजाको 'हिसापथसे हटाने को जरूर जाशा करता हूँ। नरेशोंकी रक्षा करना सार्वभौम सत्ताका फर्ज ह, मगर उनके अधौत्र रहनेवाली अजाकी रक्षा करना भी निश्चय ही उसका उतना ही फर्ज है। मुझे लगता है कि सार्वभौम सताका यह भी फर्ज है फि वह उस समय नरेशोंको सहायता करना छोड़ दे, जब यह साबित हो जाय कि अगुक राजा अपनी प्रजाको प्रारंभिक अधिकार हेमके लिए भी तैयार नहीं है और उसके एक नागरिकको बुरी तरह इधर-उधर घुमाया जा रहा है, और अदालतमें भी उसे पैर नहीं रखने दिया जाता, जैसा कि जयपुर में हो रहा है। हिन्दुस्तान में रियासतकी घटनाओंपर में जितना ही अधिक विचार करता हूँ, भो तो ऐसा सिखायी देता है कि अगर जार्यभौम सत्ता इन बुखव घटनाओं को लाचारोफी दृष्टि से देखती रही, तो श अभागे देशका भविष्य अंधकारमय ही समझना चाहिये। राजकोट और जयपुरकी घटनाओंसे हमें पता चल सकता है कि पूसरे राज्यों में भी क्या-क्या होनेवाला है । महाराजा बीकानेर मरेयोंको सलाह तो यह ठीक ही दी है कि उन्हें मिलकर काम करना चाहिये, पर नेतृत्व उन्होंने गलत दिया। पुचकारने ओर दुतकारनेकी नीतिसे भरेषा कहाँले भी न रहेंगे। इससे तो शटुता और जिद्दो-महब ही पैदा हुई है। संभव है कि रियासतोंकी प्रजा, नरेशोंकी तरह मिलकर काम न कर सके, पर वे उनके या ब्रिटिश भारतके लोगोंके साथ विवेशियोहा-सा व्यवहार न कर सकेंगे। आज तमाम नरेश मिल भी जायें, तब भी प्रनामें इसमी काफी जागृति पौधा हो चुकी है कि उनके वारा किये जानेवाले बबावका भी वह सटकर मुकाबला कर लेगी। हरिजन सेवक ११ फरवरी, १९३९