पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१३५

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पुत्रशोक के कारण पिता यशवंतराव के अंतःकरण पर ऐसा आघात पहुँचा कि वे अत्यंत दुःख से मूर्छित हो गये और जब मूर्छा टूटी तब पिता प्रेम से होनहार एकमात्र पुत्र के शांत हो जाने के कारण विकल हो करुणा भरे शब्दों से कहने लगे---नत्थू ! मेरे हृदय के भूषण, शरीर के बलदाता, प्राणों के आधार, तू इस प्रकार निठुर हो गया ! क्या तुझे तनिक भी दया नहीं आती, बेटा क्षण भर के लिये ही उठकर मेरे संतप्त हृदय को शीतल कर दे । तेरी माता तुझे बार बार जोर जोर से पुकार रही है । उसकी तू तनिक भी सुध नहीं लेता । हा प्राण के प्यारे वत्स ! एक बार मुख से बोल, धीरज बँधा । तू क्यों मौन हो गया । उत्तर क्यों नहीं देता ? बच्चे, तुम सदा मेरे साथ भोजन करते थे, मेरे सोने के उपरांत सोचे थे, तुम सब कार्य मुझ से आज्ञा लेकर ही करते थे, फिर आज तुम्हें क्या हो गया, तुमने किस प्रकार अनीति का अवल्चन किया । मेरे पहले तुम क्यों स्वर्ग का चल बसे । क्या तुमको ऐसा करना उचित था ? प्यारे ! एक बार भी अपने प्रिय मधुर बातों को सुनाकर धीरज दो । बेटा ! तुम्हारी नानी तुम्हें बुलाने के लिये सवारी भेजेगी तब में उनको क्या उत्तर दूँगा ? क्या तुम उनसे अब मिलने नहीं जाओगे ? क्या तुम चक्षु हीन हो गये हो, देख भी नहीं सकते ? प्यारे पुन्न, मैं और तुम्हारी माँ बार बार तुमको पुकार रहे हैं । तुम तो तनिक भी आँख खोलकर नहीं देखते हो । दैव ! अब मेरा प्राण किस लालच से इस अनित्य शरीर में ठहरा हुआ है, ओह, अब यह दारुण दुःख नहीं सहा जाता । रे अधम हृदय ! जैसे पंकज