हुआ तब बाई ने फंदी को अपने समक्ष बुलवाया, और बड़े प्रेम भरे मधुर शब्दों से भाषण कर अपने हाथ में का सुवर्ण का कंकण पारितोषक में दिया । अनंतर बार बार फंदी की सराहना करके बाई ने अपनी सवारी आगे बढ़ाई ।
तात्पर्य यह है कि अहिल्याबाई स्वयं भक्तिमार्ग पर चलती थीं, और औरों को भी इसी प्रकार का उपदेश देती थीं । बाई भक्ति ही को सदा सुख मानती थीं ।
तजि मदमोह कपट छल नाना, करौं सखा तेहि साधु समाना ।
(३) एक समय एक विद्वान् ब्राह्मण ने अहिल्याबाई के सत्य सत्य उत्तम उत्तम गुणों की और धर्मयुक्त न्याय करने की प्रशंसा करते हुए एक ग्रंथ लिख कर बाई को भेंट किया, जिसको उन्होंने सुना और अंत में उस ब्राह्मण को अपने पास बुला कर कहा कि "तुमने मुझ सरीखी दीन पामर की व्यर्थ स्तुति क्यों की, मैं बड़ी पापिनी हूँ मैं इस योग्य नहीं हूँ कि मेरी इस प्रकार स्तुति की जाय । इसकी अपेक्षा यदि तुम अपना अमूल्य समय परमात्मा की स्तुति में लगाते हो वह समय अवश्य सार्थक होता और उसका पुण्य भी तुमको अवश्य होता ।
कोई कोई यह भी कहते हैं कि उस पुस्तक को बाई ने नर्मदा जी में डुबवा दिया था। परंतु बाई को आत्मस्तुति से बहुत घृणा थी, वे अपनी स्वयं प्रशंसा नहीं चाहती थीं । बुद्धिमानों का यही लक्षण है । क्या कभी सांच को आंच आ सकती है; यदि हम आज कल के बहुत से मनुष्यों की ओर ध्यान न देते हैं तो छल, कपट, असत्य और द्वेषभाव करके
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