पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१७१

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चिता को अकेली छोड़ कर निरादरपूर्वक भस्म होने दिया ।

पश्चात् अहिल्याबाई ने पुत्री को अधिक समझा कर सती होने के दृढ संकल्प को विचलित करना असंभव जान कर कुछ उत्तर नहीं दिया, वरन अपनी प्रेमभरी दृष्टि को अपनी पुत्री पर कुछ समय तक स्थिर रक्खा जो कि बाई के प्रेम भरे हुए अंतःकरण के भावों को पूर्ण रूप से दरसाती थी, जिसको शब्दों में बतलाना अत्यत कठिन और अशक्य था । वरताव में भी बाई ने अपनी पुत्री को अत्यंत विनीत तथा दया भाव से मनाया परंतु अंत को सब निष्फल हुआ और पुत्री के संतप्त हृदय और प्रेममय दृढ़ प्रतिज्ञा को विचलित न होते हुए देख बाई अपनी पुत्री को उस संकट में छोड़ कर उस भयानक प्रासाद के कमरे से अपने निज भवन में पधारी और वहां पर बाई की दुःखित आत्मा और मम्र हृदय ने पश्चात्ताप करते हुए परमात्मा से अत्यंत दीन हो प्रार्थना की और पश्चात् मगीपवर्ती हृदयविदारक दुःख को अवलोकन तथा सहने करने को वे उद्यत हो गई । उस समय बाई की प्रार्थना सुन ली गई और दयालु परमेश्वर ने समीपवर्ती दुःख को सहन करने की शक्ति बाई को प्रदान की ।

मुक्ताबाई का अपने प्राणपति के साथ सत्यलोक में जाने का समय आ उपस्थित हुआ और प्रसाद के राजमार्ग से दुःखित दशा में एक भव्य दृश्य निकलना आरंभ हो गया ।

पहले पहल ऊँचे ऊँचे विशाल झंडे पवन में लहराते हुए जिन पर नाना प्रकार के और भिन्न भिन्न रंगों के चिन्ह थे दृष्टिगत हुए । तदुपरांत दिव्य ब्राह्मणगण ढ़ीले ढ़ीले चोगे