सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( ५६ )


बेटा ईश्वर सदातुम्हारा कल्याण करे, तुम सदा फूलो फलो और सुखी रहो।।

यशवंतराय को उपदेश करके बाई अपनी पुत्री मुक्ताबाई को शिक्षा देने लगी, मेरी प्राणाधारा मुक्ता, तुमको आज यह अभागिन विदा करके इन विशाल भवनों में, खोए हुए बच्चे के हितार्थ जैसे हरिणी निर्जन वन में तड़फती है, वैसे तुम्हारे विना सड़फती रहेगी, तुमको यह अंतिम शिक्षा देती हैं. इसकी गांठ अपने पल्लू में बांध रखो । यद्यपि तुम निरी अल्हण नही हो परमात्मा ने तुमको समझने की बुद्धि और शक्ति दी है तथापि मेरी इस शिक्षा को अपने हृदय पर अंकित कर लेना। देखो बेटी, स्वामी ही स्त्री का परम आराध्य देवता है, स्वामी के रहते स्त्री को किसी दूसरे की पूजा करने का अधिकार नहीं है। औरों की कौन कहे यदि माता पिता भी आजावें तो पहले स्वामी की सेवा शुश्रूषा करके उनका आदर सत्कार करना चाहिए। ईश्वरोपासना के प्रथम स्वामी की ही उपासना करना समुचित है क्योंकि स्त्री के लिये स्वामी ही शरीरधारी ईश्वर है। पति को आज्ञा के प्रतिकूल कोई कार्य न करना और न उनको कभी किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाना, सुख और भोग की तनिक भी इच्छा मत रखना, धर्म का भय लिए ईश्वर की भक्ति में लीन रहकर सर्वदा पति की सेवा में निमग्न होकर काल व्यतीत करना, पति को बाहर से आते देख प्रसन्नचित्त और हँसमुख होकर उनके सामने जाना, और यदि सांसारिक झगड़ों के कारण पति का मन व्यग्र हो तो उसके दूर करने का यत्न करना, स्वामी से वार्तालाप करते