ऐसी भूल न होने पावे जिससे अपने स्वामी के प्रेम का किंचित् भी आघात पहुँचे । अंत को कहते कहते बाई के नेत्रों से प्रेमाश्रुओ की धारा बह चली, तब वे पुत्री को अपने शरीर से चिपटा उसका मस्तक सूंघनेे लगी, और हृदय से प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दे युगल जोड़ी को उन्होंने विदा किया ।
इस जगत में माता पिता तथा अन्य बंधुजनों, को पुत्री को विदा करने में थोड़ा बहुत कष्ट होता ही है, परंतु माता को और विशेष कर उस माता को जिसके एकमात्र पुत्री के अतिरिक्त दूसरी संतान ही नहीं है, कितना प्रेम भरा हुआ दु:ख होता है इसका अनुभव वही कर सकते हैं जिनको कन्यारत्न पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । औरों की तो कथा ही क्या है स्वंय महर्षि कण्व जय शकुंतला को विदा करने लगे तब वे प्रेम के कारण विकल हो उठे थे, राजा जनक और रानी सुनयना भी जय जगन्माता श्रीजानकीजी को विदा करने लगे तब प्रेम के कारण कितने व्याकुल हुए थे यह नीचे की पंक्तियों से प्रतीत होता है ।
मजु मधुर मूरति उर आनी । भई सनेह शिथिल सब रानी ।।
पुनि पुनि मिलति सखिन बिलगाई । बाल वत्स जनु धेनु लवाई ।।
प्रेम विवश सय नारि नर, सखिन सहित निवास ।
मानहू कीन्हे विदेहपुर, करुणा विरह निवास ।।
परंतु धन्य थी अहिल्याबाई जिन्होंने अपने श्वसुर, पति, पुत्र के दुःख को शांतिपूर्वक सहन कर अपनी प्रजा के दुःख निवारण करने के हितार्थ अपनी एकमात्र पुत्री को भी बाजी