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पृष्ठ:आँधी.djvu/३६

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आँँधी
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                 आँँधी

लेखा कमलों का मुँह चूमती हुई उठ खड़ी हुई । मालती अवाक् रामेश्वेर स्तब्ध कि तु मैं प्रकृतिसत्ता था । लैला चली गई।

मैं विचारता रहा सोचता रहा । कोई अंत न था ओर-छोर का पता नहीं ! लैला ! प्रशासारथि -रामेश्वर और मालती सभी मेरे सामने ने बिजली के पुतलों से चक्कर काट रहे थे। संध्या हो चली थी किन्तु मैं पीपल के नीचे से उठ न सका । प्रशासारथि अपना ध्यान समाप्त करके उठे। उन्होंने मुझे पुकारा श्रीनाथजी । मैंने हँसने की चेष्टा करते हुए कहा कहिए!

आज तो आप भी समाधिस्थ रहे। तब भी इसी पृथ्वी पर था। जहां लालसा क्रदन करती है । दुखा नुभूति हँसती है और नियति अपने मिरी के पुतलों के साथ अपना कर मनोविनोद करती हूं किन्तु आप तो बहुत ऊँचे किसी स्वर्गीय भावना में ठहरिए श्रीनाथजी ! सुख और दुख आकाश और पृथ्वी स्वर्ग और नरक के बीच में ही वह सत्य है जिसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है।

मुझे क्षमा कीजिए ! अतरिक्ष में उड़ने की मुझमें शक्ति नहीं है।मैंने परिहासपूर्वक कहा ।

साधारण मन की स्थिति को छोड़ कर जब मनुष्य कुछ दूसरी बात सोचने के लिये प्रयास करता है तब क्या वह उड़ने का प्रयास नहीं ! हम लोग कहने के लिए विपदा हैं किन्तु देखिए तो जीवन में हम लोग कितनी बार उड़ते हैं उड़ान भरते हैं। वही तो उन्नति की चेष्टा जीवन के लिए संग्राम और भी क्या क्या नाम से प्रशंसित नहीं होती। तो मैं भी इसकी निन्दा नहीं करता उठने की चेष्टा करनी चाहिये किंतु