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पृष्ठ:आँधी.djvu/६०

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दासी
५३
 


मेरे शरीर पर उनका आजीवन अधिकार रहेगा । वे मेरे नियम विरुद्ध आचरण पर जब चाहें राजपथ पर मेरे बालों को पकड़ कर मुझे घसीट सकते हैं । मुझे दण्ड दे सकते हैं । मैं तो मर चुकी हूँ। मेरा शरीर पाँच सौ दिरम पर जी कर जब तक सहेगा खटेगा । व चाहें तो मुझे कौड़ी के मोल भी किसी दूसरे के हाथ बेंच सकते हैं । समझा ! सिर पर तृण रख कर मैंने स्वयं अपने को बेचने में स्वीकृति दी है। उस सत्य को कैसे तोड़ दूं।

बलराज ने लाल होकर कहा-इरावती यह असत्य है सत्य नहीं। पशुओं के समान मनुष्य भी बिक सकते हैं ? मैं यह सोच भी नहीं रह सकता । यह पाखण्ड तुर्की घोड़ों के मैं पागल व्यापारीयों ने फैलाया है । तुमने अनजाने में जो प्रतिज्ञा कर ली है वह ऐसा सत्य नहीं कि पालन किया जाये । तुम नहीं जानती हो कि तुमको खोजने के लिए ही मैंने यवनों की सवा की।

क्षमा करो बलराज मैं तुम्हारा तर्क नहीं समझ सकी । मेरी स्वामिनी का रथ दूर चला गया होगा तो मुझे बातें सुननी पड़ेगी। क्योंकि आज कल मेरे स्वामी नगर से दूर स्वास्थ्य के लिए उपवन में रहते हैं । स्वामिनी देव दर्शन के लिए आई थीं।

तब मेरा इतना परिश्रम व्यर्थ ही हुआ । फीरोजा ने व्यर्थ ही आशा दी थी । मैं इतने दिनों भटकता फिरा । इरावती ! मुझ पर दया करो।

फीरोजा कौन !-फिर सन्सा रुक कर इरावती ने कहा-क्या करूँ । यदि मैं वैसा करती तो मुझे इस जीवन की सबसे बड़ी प्रसन्नता मिलती कि तु मेरे भाग्य में है कि नहीं इसे भगवान ही जानते होंगे ? मुझे अब जाने दो। बलराज इस उत्तर से खिन्न और चकराया हुआ काठ के किवाड़ की तरह ह्रावती के सामने अलग होकर मंदिर के प्रचार से लग गया । इरावती चली गई। बलराज कुछ