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पृष्ठ:आँधी.djvu/७३

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घीसू

संध्या की कालिमा और निर्जनता में किसी कुएँ पर नगर के बार बड़ी पारी स्वर-लहरी गूंजने लगती। घीसू को गाने का चसका था पर तु जब कोई न सुने । वह अपनी बूटी अपने लिए घोटता और आप ही पीता।

जब उसकी रसीली तान दो चार को पास बुला लेती वह चुप हो जाता । अपनी बटुई म सब सामान बटोरने लगता और चल देता। कोई नया कुत्रा खोजता कुछ दिन वहाँ अड्डा जमता।

सब करने पर भी वह नौ बजे नन्दू बाबू के कमरे में पहुच ही जाता । नदू बाबू का भी वही समय था बीन लेकर बैठने का। घीसू को देखते ही वह कह देते-आ गए घीसू !

हा बाबू, गहरेबाजों ने बड़ी धूल उड़ाई-साफे का लोच पाते श्राते बिगड़ गया!-कहते-कहते वह प्राय अपने जयपुरी गमछे को बड़ी मीठी श्राखों से देखता । और नन्दू बाबू उसके कंधे तक बाल छोटी छोटी दाढी बड़ी-बड़ी गुलाबी आँखों को स्नेह से देखते । घीसू उनका नित्य दर्शन करनेवाला उनकी बीन सुननेवाला भक्त था। नन्दू बाबू, उसे अपने डबे से दो खिल्ली पान की देते हुए कहते-लो इस जमा लो ! क्यों तुम तो इसे जमा लेना ही कहते हो न?

वह विनम्र भाव से पान लेते हुए हँस देता--उसके स्वच्छ मोती से दात हँसने लगते ।

घीसू की अवस्था पचीस की होगी। उसकी बूढी माता को मरे भी तीन वर्ष हो गये थे।