मोनी न रोई न चिल्लाई। वह हठी
लड़के की तरह उस मारनेवाले
का मुँह देख रही थी।
हाकिम परगना एक अच्छे सिविलियन थे। वे कैम्प से टहलने के लिये गये थे; नन्दू ने न जाने उनसे हाथ जोड़ते हुए क्या कहा, वे उधर ही चल पड़े जहाँ मोनी थी।
सब बातें समझकर साहब ने मोनी की हथकड़ी खोलते हुए चौकीदार की पीठ पर दो-तीन बेत जमाये, और कहा---"देख बदमाश! आज तो तुझे छोड़ता हूँ, फिर इस तरह का कोई काम किया, तो तुझसे चक्की ही पिसवाऊँगा। असली डाकुओं का पता लगाओ।"
मोनी पड़ाव से चली गई। और नन्दू अपना बैल पहचानकर ले चला। वह फिर बराबर अपने उस व्यापार में लगा रहा।
कई महीने बाद---
एक दिन फिर प्याज-मेवा लेने की लालच में नन्दू उसी मोनी की झोपड़ी की ओर पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा---झोपड़ी से सब पत्ते के छावन तितर-बितर होकर बिखर रहे हैं और पत्थर के ढोंके अब-तब गिरना चाहते हैं। भीतर कूड़ा है, "जहाँ वह पहले जंगली वस्तुओं की ढेर देखा करता था। उसने पुकारा---मोनी! कोई उत्तर न मिला। नन्दू लौटकर अपने पथ पर आने लगा।
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