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आकाश-दीप
 


सरकार बड़ी देर से कौतुक देख रहे थे। बोले---"इसे पकड़ कर पालतू बनाया जाय तो कैसा?"

"उहूँ, यह फूलसुँघी है। पींजरे में जी नहीं सकती। उसे फूलों का प्रदेश ही जिला सकता है, स्वर्ण-पिंजर नहीं। उसे खाने के लिये फूलों की केसर का चारा और पीने के लिये मुकरन्द-मदिरा कौन जुटावेगा?"

"पर इसकी सुन्दर बोली संगीत-कला की चरम सीमा है। वीणा में भी कोई-कोई मीड़ ऐसी निकलती होगी। इसे अवश्य पकड़ना चाहिये।"


"जिसमें बाधा नहीं, बन्धन नहीं, जिसका सौन्दर्य स्वच्छन्द है उस असाधारण प्राकृतिक कला का मूल्य क्या बन्धन है? कुरुचि के द्वारा वह कलङ्कित भले ही हो जाय परन्तु पुरस्कृत नहीं हो सकती। उसे आप पींजरे में बन्द करके पुरस्कार देंगे या दण्ड।" कहते हुए उसने विजय की एक व्यंङ्ग भरी मुसकान छोड़ी। सरकार की---उस वन विहङ्गम को पकड़ने की लालसा, बलवती हो उठी। उन्होंने कहा---"जाने भी दो, वह अच्छी कला नहीं जानती।" प्रसङ्ग बदल गया। नित्य का साधारण विनोद-पूर्ण क्रम चला।

चूड़ीवाली अपने अभ्यास के अनुसार समझती कि यदि बहूजी की अपार प्रणय सम्पत्ति में से कुछ अंश मैं भी ले लेती हूँ

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