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आकाश-दीप
 


हूँ। मैं ब्राह्मण-कुमारी हूँ; सब अपना धर्म छोड़ दें, तो मैं भी क्यों छोड दूँ?" मुगल ने चन्द्रमा के मन्द प्रकाश में वह महिमामय सुखमण्डल देखा; उसने मन-ही-मन नमस्कार किया। ममता पास की टूटी हुई दीवारों में चली गई। भीतर, थके पथिक ने झोपड़ी में विश्राम कया।

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प्रभात में खण्डहर की सुन्धि से ममता ने देखा, सैकड़ों अश्वारोही उस प्रान्त में घूम रहे हैं। वह अपनी मूर्खता पर अपने के कोसने लगी।

अब उस झोपड़ी से निकलकर उस पथिक ने कहा---"मिरजा! मैं यहाँ हूँ।"

शब्द सुनते ही प्रसन्नता की चीत्कार-ध्वनि से वह प्रान्त गूँज उठा। ममता अधिक भयभीत हुई। पथिक ने कहा---"वह स्त्री कहाँ हैं? उसे खोज निकालो।" ममता छिपने के लिये अधिक सचेष्ट हुई। वह मृग-दाव में चली गई। दिन-भर उसमें से न निकली। संध्या में जब उन लोगों के जाने का उपक्रम हुआ, तो ममता में सुना, पथिक घोड़े पर सवार होते हुए कह रहा है---"मिरजा! उस स्त्री को मैं कुछ दे न सका। उसका घर बनवा देना, क्योंकि मैंने विपत्ति में वहाँ विश्राम पाया था। यह स्थान भूलना मत।"---इसके बाद वे चले गये।

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