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आकाश-दीप
 


आज अपनी भाभी के संग स्नान करने के लिये आया है। गोद में अपने चार बरस के भतीजे को लिये वह भी सीढ़ियो से उतरा। भाभी ने पूछा---"निर्मल! आज क्या तुम भी पुण्य-संचय करोगे?"

"क्यों भाभी! जब तुम इस छोटे-से बच्चे को इस सरदी में नहला देना धर्म समझती हो, तो मैं ही क्यों वञ्चित रह जाऊँ?"

सहसा निर्मल चौंक उठा। उसने देखा, बगल में वही भिखारिन बैठी गुनगुना रही है। निर्मल को देखते ही उसने कहा---"बाबूजी, तुम्हारा बच्चा फले-फुले, बहू का सोहाग बना रहे! आज तो मुझे कुछ मिले।"

निर्मल अप्रतिम हो गया। उसकी भाभी हँसती हुई बोली---"दुर पगली!"

भिखारिन सहम गई। उसके दाँतों का भोलापन गम्भीरता के परदे में छिप गया। वह चुप हो गई।

निर्मल ने स्नान किया। सब ऊपर चलने के लिये प्रस्तुत थे। सहसा बादल हट गये, उन्हीं अमल-धवल दाँतों की श्रेणी ने फिर याचना की---"बाबूजी, कुछ मिलेगा?"

"अरे अभी बाबूजी का ब्याह नहीं हुआ। जब होगा तब तुझे न्योता देकर बुलावेंगे। तब तक सन्तोष करके बैठी रह।"---भाभी ने हँसकर कहा।

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