ई० १७५४ में इंगलैण्ड और फ्रांस में राजनैतिक स्थितियाँ विभिन्न थीं। जबकि इंगलैण्ड सम्पूर्ण रूप से भारत की ओर समय-समय पर उचित सहायता भेजता रहा, तब फ्रांस अपने आन्तरिक झगड़ों में फंसा रहा। इंगलैण्ड के राज्य-परिवार में कभी पारिवारिक झगड़े उत्पन्न नहीं हुए, परन्तु फ्रांस का राज्य-परिवार आन्तरिक झगड़ों में फंसा रहा। त्रिचनापली के युद्ध में हार होने के बाद डूप्ले को फ्रांस बुला लिया गया। फ्रांस और अंग्रेजों ने परस्पर में सन्धि कर ली परन्तु अंग्रेज कब सन्धियों का पालन करते थे।
१८वीं शताब्दी के मध्य में फ्रांस का राज्य वंश अपनी भोगलिप्सा में डूबकर राजकोश को ऐश्वर्य और विलासिता में खाली कर रहा था। तत्कालीन फ्रांस का बादशाह लुई पंद्रहवां राजकोष को बिल्कुल समाप्त करके और अपनी अतृप्त भोगलिप्सा को अपने हृदय में लिए सन् १७७४ में मर गया। उसके बाद लुई सोलहवां सिंहासन पर बैठा।
नया बादशाह नवयुवक था और उसकी पत्नी आस्ट्रिया की राजकुमारी मेरी आत्वानेव बहुत सुन्दरी थी। पति-पत्नी का प्रेम आपस में बँटा हुआ था, परन्तु उन्होंने भी अपने ऐश्वर्य और सुख-भोग के लिए राजकोष को अंधाधुंध खर्च किया। प्रतिवर्ष प्रधानमंत्री राजकोष को भरने के लिए उपाय करते, परन्तु उनका प्रयत्न सफल नहीं होता था। १२ वर्ष के बाद बादशाह से कह दिया गया कि अब फ्रांस का दिवाला निकलने वाला है। बादशाह ने अमीरों, पादरियों और प्रजा के विशिष्ट व्यक्तियों को साथ लेकर कुछ उपाय करना चाहा, परन्तु फ्रांस-भर में प्रजा इतनी दुखी और पीड़ित हो चुकी थी कि महान क्रान्ति का सूत्रपात १७८६ में देश-भर में हुआ। फ्रांस में तीन राजनैतिक दल बन गए। गिरोण्डिस्ट, कोडिलियर और जैकोबिन। तीनों ही दल अपनी महारानी को आस्ट्रिया की राजकुमारी होने के कारण विदेशी समझ उसका तिरस्कार करते रहे और राजवंश का
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