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आख्यान]
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सावित्री

विलास का कुसुम बनूँगी? देखो बाबूजी! देवलोक में जिस फूल की शोभा है उसको भूमि की धूलि में लपेटकर मलिन करने की आज्ञा मत दीजिए। फिर यह भी देखिए कि कुछ मृत्यु ही तो जीवन का अन्त है नहीं। आपके ही मुँह से सुना है कि मृत्यु के बाद अमरलोक में स्त्री-पुरुष का वह मिलन होता है जिसका फिर वियोग ही नहीं। उस राज्य में न पाप है, न ताप है, और न वासना की तीक्ष्ण ज्वाला ही है। वहाँ निरी शान्ति है-केवल तृप्ति है। पिताजी! मेरे हृदय-देवता यदि एक वर्ष के बाद, इस पृथ्वी को त्यागकर, अमरलोक में चले जायँगे तो मैं अवश्य ही जीवन के अन्त में उन महापुरुष से जाकर मिलूँगी। पिता! इस बात का मुझे भरोसा है। उस पवित्र राज्य में विधाता की दाल नहीं गलती। उस राज्य में हम लोगों का विरह नहीं होगा। इसलिए मुझसे ऐसा न कहिए।

बेटी की बात सुनकर राजा अश्वपति सब समझ गये। उनके हृदय से खेद के बादल उड़ गये। कर्तव्यरूप सूर्य की किरणें पड़ने से उनका हृदय साफ़ हो गया। उन्होंने लड़की की इस निष्ठा पर प्रसन्न होकर कहा—बेटी! तुम मेरी तत्त्वज्ञानवाली और स्थिरबुद्धि की लड़की हो। दुनियावी ज़िन्दगी की दुःख-दुर्दशा सोचकर अब तुमसे मैं वैसा नहीं कहूँगा। बेटी! विषाद को छोड़ो। तुम्हारी वासना बहुत जल्द पूरी होगी।

अभी तक नारदजी चुपचाप बैठे-बैठे बाप-बेटी की बातचीत सुनते थे। सावित्री के पातिव्रत को और अश्वपति की उदारता को देखकर वे बहुत सन्तुष्ट हुए। उनकी करताल झनझना उठी मानो वह अपूर्व झंकार संसारी कोलाहल को त्यागकर संगीत से गूँजनेवाले देवलोक में जा पहुँची।

देवर्षि ने कहा—महाराज! आपकी इस सुन्दर कन्या की