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[दूसरा
आदर्श महिला

के देवी-देवता हैं और वह भक्ति तथा प्रीति करनेवाली सावित्री उस नये राज्य की स्नेह-कोमल रानी है, जो दोनों हाथों से कल्याण और ममता बाँट रही है।

रास्ते में, पहली मुलाकात के पवित्र मुहूर्त्त में, सत्यवान ने सावित्री के जिस अनुपम रूप को देखा था, देखा कि वह रूप यौवन का निरा विकास ही नहीं है, बरन सावित्री की भीतरी सुन्दरता ने ही बाहरी रूप को इतना अधिक उज्ज्वल बना दिया है। सत्यवान सावित्री जैसी पत्नी को पाकर हृदय में मानो दूना बल पा गया। शास्त्र कहता है कि साध्वी पत्नी स्वामी के हृदय का बल है; ममता का जीता-जागता चित्र है और वह सौभाग्य की दूती है। राजकुमारी सावित्री के पवित्र प्रेम से सत्यवान शान्त वन की भूमि में नवीन प्रेम-राज्य देखने लगा। उसने देखा कि इस आश्रम की स्वाभाविक शोभा सावित्री के रूप से खूब मधुर हो गई है। राजकुमारी सावित्री की प्रेमरूपी भेंट पाकर सत्यवान के हृदय में नया बल आ गया। सत्यवान ने सोचा कि मैंने पूर्व जन्म में कितना सुकर्म किया है जिसके फल में सावित्री की सी सुन्दर पत्नी मिली है। सत्यवान सोचता कि बचपन से ही भोग-विलास में पली हुई सावित्री मेरे जीवन की संगिनी होकर पुरानी आदत के अनुसार भोग-विलास की चीज़ें ढूँढ़ेगी, किन्तु अब उसने देखा कि सावित्री तो प्रेम से सने हुए हृदयवाली वनवासिनी योगिनी है। सत्यवान ने सोचा कि इतने दिन तपस्वियों के सत्संग में रहने पर भी मैं जिस बात को नहीं सीख पाया उसी को राजकन्या सावित्री ने राजमहल के भीतर ही सीख लिया है। तपोवन की शान्त शीतल शोभा में मैंने जो वस्तु नहीं पाई उस वस्तु को सावित्री राजमहल में ही पा गई है; अब समझ में आया कि हृदय की वस्तु केवल तपोवन ही में नहीं है। उसे प्राप्त करने के लिए पहले हृदय को उसके योग्य बनाना पड़ता है। सत्यवान