फैलाकर उन्हें खाने के लिए आकाश-मार्ग ले आ रही है। राम ने विश्वामित्र की आज्ञा से उसको मार डाला। इस प्रकार बहुतसे राक्षसों को मारकर रामचन्द्र ने विश्वामित्र का यज्ञ पूरा किया।
महर्षि विश्वामित्र ने राजा जनक की प्रतिज्ञा सुनी थी। वे मन ही मन समझते थे कि जनक की कन्या इन वीर-श्रेष्ठ रामचन्द्र के ही योग्य है। इससे वे राम-लक्ष्मण को साथ लेकर राजा जनक के यहाँ पहुँचे। रामचन्द्र ने राजा जनक की प्रतिज्ञा सुनकर उस धनुष को देखने की इच्छा प्रकट की। विश्वामित्र ने उन्हें धनुष दिखा दिया। रामचन्द्र ने उस धनुष को बाँयें हाथ से उठाकर उस पर गुण चढ़ाया। फिर तीर लगाकर छोड़ते समय गुण खींचकर उसे तोड़ डाला। यह देख दर्शकगण रामचन्द्र की बारम्बार प्रशंसा करने लगे। वधू के वेष में सीता ने मुसकुराते हुए रामचन्द्र के गले में जयमाल डाल दी। उनके उस मिलन के पवित्र मुहूर्त में अमरावती का आनन्द बिजली की तरह खेल गया; मानो नन्दनकानन के पारिजात-कुसुम के निर्मल हास्य के साथ, उनके हास्य का वदलौवल हो गया। नील-समुद्र में स्वच्छ-सलिला नदी आ मिली।
राजा दशरथ राजर्षि जनक की सादर अभ्यर्थना से, भरत और शत्रुघ्न सहित, मिथिला में आये। राजा जनक ने सीता के साथ रामचन्द्र का, उर्मिला के साथ लक्ष्मण का और भाई कुशध्वज की दो लड़कियों---माण्डवी और श्रुतकीर्ति---से भरत और शत्रुघ्न का व्याह कर दिया।
महाराज दशरथ बड़े आदर-मान के साथ राजा जनक के यहाँ कई दिन रहकर पुत्र और पुत्र-बधुओं सहित अयोध्या को लौट रहे थे कि परशुराम ने उन लोगों का रास्ता रोककर कहा---"राम! तुमने हमारे गुरु महादेव का धनुष तोड़कर घमण्ड प्रकट किया है,