इसलिए मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा लेना चाहता हूँ।" रामचन्द्र ने बाण चलाकर जब परशुराम के हाथ के कुठार को व्यर्थ कर दिया तब परशुराम लज्जित होकर महेन्द्र पर्वत पर तपस्या करने चले गये।
[ ३ ]
महाराज दशरथ पुत्र और पुत्र-वधुओं को साथ लेकर अयोध्या लौट आये। राजधानी में आनन्द की धारा बह चली, मानो प्रकृति देवी ने आनन्द में मग्न होकर सैकड़ों धाराओं में आनन्द का स्रोत बहाया हो। राज-पुत्रगण विवाह के पवित्र आमोद में समय बिताने लगे। युवराज रामचन्द्र, सब विषयों में, प्रजा के अधिकतर प्यारे हो चले। उनके सद्व्यवहार, मधुर वचन और अपूर्व ममता ने प्रजा को मंत्र की तरह मोह लिया।
महाराज दशरथ ने बुढ़ापे में योग्य पुत्र रामचन्द्र को, युवराज-पद पर अभिषिक्त करने की इच्छा से, उसकी तैयारी की। अभिषेक का दिन नियत हुआ। प्राणप्यारे रामचन्द्र के राजा बनने की बात सोचकर प्रजा मन ही मन प्रसन्न होकर राजतिलक के दिन की बाट जोहने लगी। सारी राजधानी में मंगल-पताकाएँ फहराने क्या लगीं, मानो हवा से बातें करके सर्वत्र राज्याभिषेक की खबर फैलाने लगीं। शहनाई की सुन्दर रागिनी मानो राज-महल में आनन्द की मन्दाकिनी-धारा बहा रही थी। किन्तु विधाता के चक्र से शहनाई के गीत ने अचानक शोकयुक्त सुर अलापकर अयोध्या-वासियों को शोकाकुल कर दिया।
सम्बरासुर से करने में महाराज दशरथ बाण से घायल होकर मरने के बराबर हो गये थे। मॅझली रानी कैकेयी की सेवा-शुश्रूषा से स्वस्थ होकर वे उसे दो वर देने को तैयार हुए। कैकेयी ने