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आख्यान ]
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दमयन्ती

दोनों में जंगली फल देना पड़ता है और जब आपकी प्यास बुझाने के लिए तालाब से कमल के पत्तों में पानी लाना पड़ता है तब मेरा कलेजा फटने लगता है।

नल---नहीं रानी! इसमें मुझे रत्ती भर भी दुःख नहीं। यदि दुःख है तो पराधीनता के अन्न में। रानी! वन में विचरनेवाले पक्षी को सोने के पींजरे में बन्द करके राज-भोग देने से कहीं वह प्रसन्न रह सकता है? प्यारी! मुझे ऐसा करने को मत कहना।

दमयन्ती और कुछ नहीं कह सकी। उसने राजा की उदास सूरत देखकर एक बूँद आँसू ढलका दिया।

नल ने सोचा कि इस अवस्था में कुछ दिन के लिए दमयन्ती को छोड़ने के सिवा और कोई उपाय ही नहीं है, किन्तु दमयन्ती मुझे इस तरह छोड़ेगी थोड़े ही; वह तो मुझे छोड़कर नैहर भी नहीं जाना चाहती। तब मेरी इच्छा कैसे पूरी होगी? इस प्रकार सोच-विचार-कर नल ने स्थिर किया कि दमयन्ती को ही छोड़ जाना होगा; बिना इसे छोड़े इस अपार विपत्ति-सागर से किसी तरह पार नहीं हो सकूँगा। उनके मन में एकाएक यह बात आई कि ख़ूँखार जानवरों से भरे जंगल में दमयन्ती को अकेली छोड़ जाय तो वह अपनी रक्षा कैसे करेंगी! फिर उन्होंने सोचा कि 'विपत्ति में फँसे हुए की रक्षा धर्म ही करता है।' हिम्मत से छाती को पक्की कर महाराज नल ने अपना कर्तव्य स्थिर करते हुए कहा-दमयन्ती! यह जो जंगल दिखाई देता है इसके उत्तर तरफ़ से एक रास्ता पूर्व को गया है। वही विदर्भ जाने का रास्ता है। बहुतसे व्यापारी और तीर्थ के यात्री उस रास्ते से आया-जाया करते हैं।

दमयन्ती ने घबड़ाकर कहा---"क्यों महाराज! दासी से ऐसी बात क्यों कहते हैं? क्या आप मुझको छोड़कर चले जायँगे? क्या

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