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आख्यान ]
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दमयन्ती

के रोने की याद आने से महाराज नल का धीरज जाता रहा। परोपकारी मनुष्य का हृदय दूसरे के दुःख में अपने सुख और शान्ति को---दुनिया को भी---लात मारकर कर्तव्य के मार्ग में दौड़ता है। इस गति को रोकना विधाता के लिए भी कठिन-सा जान पड़ता है। गङ्गाजी की जोरदार धारा रोकने में मतवाले गजराज के भी छक्के छूट जाते हैं। जिस काम में भरपूर मङ्गल है वह ज़रूर पूरा होगा, विधाता के राज्य में, इसमें तिल भर भी इधर-उधर नहीं हो सकता। इसी से आज नल का हृदय खुला हुआ है, इसी से आज उनका चित्त जीत के पागलपन से मतवाला हो रहा है, इसी से वे प्राण से भी प्यारी पत्नी के प्रेम-बन्धन को तोड़कर परोपकार के मार्ग में सुध-बुध भूले हुए एक असहाय राहगीर हैं।

नल ने धीरे-धीरे एक भयङ्कर वन में घुसकर देखा कि एक जगह दावाग्नि जल रही है। उस आग के भीतर से कोई जीव गिड़-गिड़ाकर उनसे सहायता माँग रहा है। परोपकारी नल का हृदय इससे दुखी हुआ। उन्होंने देखा कि एक बड़ा भारी अजगर आग के बीच में पड़ा है, उससे चला नहीं जाता। अगर वह तुरन्त वहाँ से न हटा लिया जाय तो जलकर राख हो जायगा। यह समझकर, नल झटपट उस आग में घुसकर उस साँप को बाहर निकाल लाये। बाहर निकलते समय आग की लपट उनकी देह में लग गई। एक जीव की रक्षा करने से उनको जो सन्तोष हुआ था उसके सामने आग की लपट किसी गिनती में नहीं थी, किन्तु हाय रे दुर्दैव! निठुर साँप ने उनको काट लिया, तो भी महाराज नल ने उसको फेंक नहीं दिया, वे उसे ऐसे स्थान में ले आये जहाँ वह अाफ़त से बचा रहे। नल ने देखा कि साँप के काटने से प्राण जाने का डर नहीं है, किन्तु उनकी देह उस साँप के विष से तुरन्त भद्दे रंग की और टेढ़ी हो